रूं’णी में

या फेरूं

रू’णी खडयां पाछै

प्हैली-प्हैली बरसात की छींटां सूं

आवै तो छै सौंधी गंध

पण

जतना बी पड़या होवै छींटा

सगळा उडज्या छै भाप बण’र पलभर में

खाली रहज्या छै

नमून खाची बा’ळ

सड़या पसीनां सूं चपचपाट होती देह

जीव में कुळबुळाहट/घबराहट /हांपणी

आंख्यां आगै काळापेळा तरबरा

धरती पे बिल में सूं मूंडा में अंडा ले’र

सुरक्षित ठौर पे लेजाबा की चींटयां की होड़

हांपता हुया चड़ी-चुड़गला

घर्ण-घट्ट

माथा ऊपर चक्कर काटता उन्हाळा का सूडयां

आचाबूच सूं उथळतो मन

असी लागै छै कै

अमूझो तगड़ो छै।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली राजस्थानी लोकचेतना री तिमाही ,
  • सिरजक : शिवचरण सेन ‘शिवा’ ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी संस्कृति पीठ