सूरज रै सुहावणै तावड़ियै में

चाल रैयो है वनभोज

भ्रस्टां रै

भीतरली उथळ-पुथळ सो,

पिछवाड़ै

मूत-मींगणी करती बकरी सो

आखै मुलक में गंद घोळ रैयो है

रात रो ऐंठवाड़ो

समदर सी गरजना करतो

करळावै है

राजधानी रो रेडियो

हिंसा रै होठां माथै

लिपस्टिक सी

रचगी है मिनख री नींद

इण हरख-हूंस री बेळा

ताबड़तोड़ अमल-पियाला घोळै है

राजा अस्ट भुजाधारी

प्रजा रो पींदो

निकळ आयो है

पोपट खाना री

चुगल बिहूणी चिलम सो

आखो जंगळ

मोमाख्यां रै छतै सो

लबालब है

जिण में बैठी राणी माखी

देय'री है दबादब ईंडा

मुग्ध भाव सूं,

आसा अनै

घणै उछाव सूं।

स्रोत
  • पोथी : छप्पनियां हेला ,
  • सिरजक : जनकराज पारीक ,
  • प्रकाशक : बोधि प्रकाशन