चिलकारां रो बखत। गायां आवण री वेळा। सूरज भगवान पड़दा री ओट हुवण री त्यारी में हा। हूं खेत सूं आंवतो हो। गायां रा खुरां सूं उठियोड़ी रेत सूं भरीज्योड़ो कोई री मीठी-मीठी याद लियां खाथो-खाथो वगै हो।

गांव री गवाड़ में वड़तां ही दस पांच राजपूतां रा घर पड़ै। हूं म्हारै ध्यान में चालै हो कै लारां सूं कोई रो हेलो सुणीजियो—

‘पा लागूं, पंडितजी! चिलम तो पीता जावो, इयां के घर कठैई भाग्यो जावै है?’

डांग री सी लागी। पण लाधजी सदा रा मिलबा वाळा ठैर्‌या, उणां री बात टाळण री हिम्मत को हुयी नीं। पाछो मुड़ियो नै राम-राम कर धूणा पर जा जम्यो। कीं इनली-ऊनली बातां कर नै हूं उठण रो मनसोभो करतो ही हो कै इत्ता में सेठ रूपचंदजी आता दीख्या।

‘जै गोपाळजी री’

‘जै गोपाळजी री। आज कूनै रस्तो भूलग्या?’ लाधजी कयो।

‘रस्तो तो को भूलिया नीं, पण बीनणी पीर जाण रो मतो कर लियो इण खातर एक एकलियो भाड़ै करणो है। हूं सोची, लाधजी घर रो ही आदमी है, बठै ही चल्या चालो।’ यों कै’र सेठजी खीस काढ़ दी।

मनै घणो गुस्सो आयो। लाधजी नै घर रो कैवा में भी सेठजी रो स्वारथ साफ दीसतो हो। कदास लाधजी नै बी अै शब्द चोखा को लागिया नीं। काठे मन सूं बोलियो—

‘के आंट है? सेठां रो माईतपणो है।’

‘तो फेर भाड़ो कै दे।’ सेठजी बोलिया।

मनै हंसी आयी—घर रो हिसाब कठै रयो। घर रो हिसाब हुतो तो फेर पछै भाड़ो खोलबा री वात ही क्यों वणती?

‘भाड़ा री भली कयी! के दूसरी बात है? आप राजी होयनै देसो सोई खैर सल्ला।’

‘नहीं, भाई! फेर लड़ता भूंडा लागां, तै कर लेणो ही आछो है। हिसाब तो बाप-बेटे में ही हुवै है।’

‘थे घर-रा सेठ, राजी हो’र देसो सोई सिर माथा पर है।’

पण सेठजी तो अड़ग्या—‘भाड़ो तो खोलस्यां ही।’

लाधजी च्यार रुपियां मांग्या। सेठजी चीकणी-चोपड़ी बातां करनै अढाई रुपियां में मामलो तै कियो। किरायो कीं कम लागै इण खातर ही सेठजी इत्ती दूर आया हा, नहीं तो म्हाजन रो बेटो भलां दो पग आगे देवै? ऊंटवाळा तो लारां ही घणा हा। देण लेण नै रामजी रो नांव, फेर घर रो ठरको ऊपर।

(२)

मनै खेत वेगो ही पूगणो हो। घड़ी एक रै झांझरकै हूं म्हारला टोरड़ा माथै जीण कसनै बारै निकळियो तो आगै सेठ रूपचंदजी री हवेली रै मूंडागै लाधजी एकलियो जोतियां ऊभां लाध्या। वांकड़ला पेचांरो गोळमटोळ साफो माथा पर। मूंछियां वट दियोड़ी। वडी-वडी गोळ-गोळ आंखियां। भरियोड़ो चैरो। गोडां सूधी धोती नै रेजी रो अंगरखो पैरवा नै। कमर में तरवार लटकै। हाथ में लो’रो भारी पोलो दियोड़ी सांतरी सी डांग।

‘आज तो कोई किल्लो जीतवा सिधावो हो के?’—उणांरी सजधज देखनै हूं हंसनै बोलियो।

‘कुण कै सकै? टैम सूगलो घणो है, कदास मौको पड़ ही जाय।’

‘अढाई रिपियां खातर जान नै जोखम में नाखणी हूं तो बुद्धिमानी को समझूं नी।’

‘अढाई रिपियां रो सवाल कोनीं, म्हाराज! राजपूत नांव-रै वट्टो लाग जावै। बात मनै बर्दास्त को हुवै नीं।’

मन-मन में लाधजी री रजपूती नै दाद देतै-देतै मैं म्हारै खेत रो मारग लियो।

(३)

गांव सूं थोड़ी दूर एक टीबो पड़ै जिण नै म्हे कोसियो धोरो केवता। टीबो मोकळो ऊंचो हो और इण तरांसूं वणियोडो हो जियांल लाडू घालण-रो धामो हुवै।

लाधजी रो एकलियो चर्रक-चूं चरक-चूं करतो इण धोरा रै वीचूं वीच वगै हो। आसापासा रा झाड़कां मांय सूं दो-च्यार आदमियां रा बोलबा री सुरसुराट कानां में पड़ी। ईनै-ऊंनै देखियो पण कीं दीसियो नहीं। भाग हाल फाटी कोनी ही। जियांन एकलियो मोटोड़ा खेजड़ा कनै पूगियो, तीन ऊटांवाळा उणने घेरनै ऊभा हुग्या।

एक पळ लाधजी सहमीजियो—हूं एकलो अर तीन। पण दूजै ही पळ रजपूती जाग उठी। तरवार सूंत नै सामो मंडग्यो।

‘खबरदार! जे म्हारै जींवतां वीनणी-रै कणीं सामो ही जोयो तो’—लाधजी गरजियो जाणै आभो कड़कियो।

‘क्यों कुत्ता-री मौत मरै है? म्हांनै थारा सूं कीं कोनी लेणो। चुपचाप आ’र आघो बैठ ज्या। बस बीनणी आळो गैणो उतार लेबा दे’—उणां माय सूं एक जणो बोलियो।

लाधजी री रजपूती नै बोल कद बर्दास्त हुतो। एकलो ही तीनांसूं अळूझग्यो। वै तीन-नसा सूं संभळिया ही कोनी हा कै लाधजी एक नै जमी माथै पाधरो कर दियो।

बाकी दोनां सूं एकलो आध घंटा ताणी जूझियो। सगळो सरीर लोही लुहाण हुग्यो पण तरवार जठै तांई हाथ में रयी अर होस रयो लाधजी वार करतो और वार झेलतो रयो। एक वार एक धाड़वी रो तरवार रो हाथ लाधजी री आखियां माथे लागियो। फेर कांई हो। लापालोप सांपरते ही दीसै ही। लाधजी अचेत होय नै भोम माथै परो पड़ियो। धाड़वी थोड़ा घायल कोनी हुया। एक तो कोस दोय पूगिया जिते मरियो ही निकळियो।

सेठाणी तो डर रै मारियै काठ री पूतळी हुवै ज्यों हुयगी। पण फेरूं आपरी वणिक-बुद्धि-रो परचै दियो। धाड़वी लड़ाई में अळूझियोड़ा हा जद मौको देखनै घणकरो गैणो रेत में परो खसोलियो नै मामूली चूंप चांप धाड़‌वियां कानी परी फेंकी। लारासूं कोई नहीं जावै इण डर सूं धाड़वी ठैरिया नहीं, जो कीं हाथ पड़ियो सो लेय नै आपरै मारग लागिया।

(४)

कोसिया धोरा पर एक टूटो भागो चूंतरो आज तांई उण वीर री याद लियां ऊभो है। कदे-कदे जद हूं ऊनै कर निकळूं तो म्हारो माथो-मतै ही उणरै सामनै श्रद्धा सूं झुक जावै।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थान के कहानीकार ,
  • सिरजक : मुन्नालाल राजपुरोहित ,
  • संपादक : दीनदयाल ओझा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी साहित्य संस्थान, जोधपुर ,
  • संस्करण : द्वितीय संस्करण
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