जगनजी रो गांव है। आप कैवोला जगनजी कुणसा? तीन-तीन जगनजी है इण गांव में। आपरो कैवणो साव साचो। इण कहाणी वाळा जगनजी बै ईज है भोळी बातां वाळा। गांववाळा बांनै इणी नांव सूं बतळाया करै। अेकदम सूधा मिनख है जगनजी रामजी री गाय जिसा अेक गाय है बां कनै। पण बा सूधी नीं है। खूंटै सूं खुलतां पाण पाधरी पाड़ोस्यां रा बाड़ा डाकै। पाड़ोसी ओळमा देवै। इसी बात नीं है कै जगनजी गाय री सेवा चाकरी में कोई पाछ राखता होवै। पण गाय रो सुभाव ईज अैड़ो है। पाड़ोसी चायै मोकळा ओळभा देवो। जगनजी कनै तो अेक ईज रट्यो-रटायो पड़ूत्तर है, “गऊमाता है, बांधी राखूं तो पाप रो भारो बंधै।”

लारलै बरस काळ हो। जगनजी री गाय टळगी। पण बै हार नीं मानी। किणी भांत हाथ-पग हिलांवता बीखै रै बीयाबान सूं बारै आया। इण बरस बिरखा मोकळी हुई, पण जगनजी रै खेत कोनी हो। गाय सारू लीलो किणरै खेत सूं लावै? केई ताळ सोच-विचार करनै बै चोखै चौधरी रै घरां पूग्या। चौधरी भलो मिनख हो। बो जगनजी नै आपरै खेत सूं भारियो लावणै री छूट देय दीनी।

कोई बीसेक दिन बीत्या होवैला। जगनजी, चौधरी सूं मजूरी मांगी।

“किण बात री मजूरी?” चौधरी इचरज सूं बूझ्यो।”

“वाह सा! कैड़ी भोळी बातां कर रैया हो? कानां में गासियो तो नीं लेय रैया?” म्हैं लारलै बीस दिनां सूं थांरै खेत सूं भारियो नीं लावूं कांई?”

“बो तो ठीक, पण इणमें मजूरी री बात कठै सूं आय टपकी..?”

“चालो, थे ईज बतावो... म्हैं घास लावूं, इणसूं थांरै खेत में निनाण होयो कै नीं होयो..? अर जे निनाण होयो, तो उणरी मजूरी भी होवणी चाईजै का नीं?

चोखो चौधरी मुळक’र कैयो, “कैड़ी भोळी बातां कर रैया हो, पण अेक बात कान खोल’र सुण लीज्यो काल सूं म्हारै खेत नीं जावोला!”

जगनजी मूंडो लटकाय लियो। पण करै कांई। नाड़ टेर्‌यां घर कानी बावड़ग्या। मारग में काळूजी मिलग्या। बै काळूजी नै सैंग बातां बताई। काळूजी ठैर्‌या दरजी। जगनजी रै दुख सूं दुखी होवता थकां बोल्या, “म्हारी दुकान माथै आय’र काज-तुरपाई सीख लेवो। हाथ साफ होयां चार पईसा मिलैला।”

आगलै दिन जगनजी जाय पूग्या काळूजी री दुकान माथै। काळूजी कतरणी सूं कातरां रै बचरका लगाया अर सूई में डोरो पोय’र जगनजी रै हाथां में थमायो अर काज-तुरपाई रो आंटो बतायो। बस, फेर कांई देर। जगनजी जोर-शोर सुं काम में जुटग्या। बांरी लगन देखण लायक ही।

अजेस महीनो-भर नीं होयो हो। जगनजी नै काळूजी री कैयोड़ी बात याद आई। वै कैयो हो हाथ साफ होयां चार पईसा मिलैला। अबै तो बानै तुरपाई अर काज करण रै कारज में आणंद अणूतो आवतो हो। बांरो हाथ अेकदम साफ होयग्यो हो। बै कोडायता-कोडायता जा पूग्या काळूजी कनै।

“अबै कीं पईसड़ा तो देवो!” जगनजी बोल्या।

“किण नांव रा?” काळूजी कैयो।

“काज-तुरपाई रा, और किण नांव रा..! महीनो-भर होवण नै आयो है काम करतां।”

जगनजी रो इण भांत तकादो करणो काळूजी नै रास नीं आयो। वै रीसाणा होवता थकां बोल्या, “अैड़ो तो अजेस आपनै काम नीं दियो। फेर पईसा किण नांव रा? अबार तांई तो म्हारा डोरा खोया है। म्हारी कातरां खराब करी है। अैड़ी भोळी बातां फेरूं मत करया।”

“इणमें भोळी वातां भळै कठै सूं आयगी? म्हैं काम तो कर्‌यो ईज है अर म्हनै तो थे ईज कैयो हो कै हाथ साफ होयां चार पईसा मिलैला। अबै चायै आप देवो या मत देवो, म्हारो फरज तो आपनै याद दिरावणो हो। आगै थे जाणो।”

“तो सुणो, म्हारो फरज आपनै याद दिरावणो है। काल सूं थे म्हारी दुकान आवण रा फोड़ा मत देख्या।” काळूजी बांनै टको सो जबाब दे दियो।

जगनजी रो माथो भंवै लाग्यो। वै कांई करै? हर कोई बांनै ‘भोळी बातां’ कैय’र टरका देवै। किणी रै खेत सूं लीलै रा भारिया ढोवो अर निनाण रा पईसा मांगो, तो ‘भोळी बातां’ पल्लै पड़ै। किणी री दुकान माथै जाय’र काज-तुरपाई करो या पईसा मांगो, तो फेरूं वै ईज ‘भोळी बातां!’

इणी बिचाळै गांव मांय बैंक री शाखा खुली। गांववाळा बैंक में खाता खुलवाया। गांववाळा जगनजी नै खातो खोलावण री बात कैयी। बैंकवाळा ब्याज रो लालच दियो अर रुपियां री सांवठी संभाळ री बात बताई। बांरै कैवण सूं जगनजी बैंक में पांच सौ रुपिया जमा करवाया। पण घोड़ा बेच’र निधड़क सोवणियै जगनजी री उणी दिन सूं नींद उडगी। आधी रात नै वै चिमक'’र उठ बैठ्या। कोई डरावणो सपनो देख्यो हो बै। बानै लाग्यो, जाणै चोर-उचक्का बैंक रो ताळो तोड़ रैया है। बै उठ्या। लाठी उठाई, बेटरी हाथ में लीन्ही, जूता पैर्‌या अर चाल पड़्या बैंक कानी। बैंक रो ताळो चोखी तरै जांच्यो-परख्यो, खड़खड़ायो। वो जाबतै सूं लगायोड़ो हो। इन्नै-बिन्नै जोयो। कोई नीं दीस्यो। चोखी तरै नैचो होयां पाछा घरै आया। अबै तो वै नेम बणा लियो। जद नींद टूटती, बै उठता। लाठी अर बेटरी लेयनै बैंक जावता। ताळो खड़खड़ाय’र जांच-परख करता अर नैचो होयां पाछा घरै बावड़ता।

अेक रात री बात। जगनजी बैंक रो ताळो खड़खड़ाणो सरू कर्‌यो हो कै उणी बगत बठीनै सूं पौरेदार रो निकळणो होयो। बो हाको कर्‌यो “चोर..! चोर..!!”

हाको सुण’र लोग घरां सूं बारै आयग्या। जगनजी नै अणूती रीस आयी। बै बोल्या, “चोर किणनै कैवो हो। पूरा पांच सौ रुपिया जमा करवायोड़ा है इण बैंक में! रोज रात नै संभाळणा पड़ै। किणरै माथै पतियारो करूं? थे लोग तो घरां में सोया पड़्या रैवो। जे चोरी होवै तो थांरो कांई ऊतनांव जावै। रुपिया डूबै तो म्हारा डूबै अर पौरादार रो पीट्योड़ो कदैई निगै तो नीं आयो? चोर-चोर कैवतां लाज नीं आवै नाजोगै नै?”

जगनजी री बातां सुण-सुण’र लोग हांसै हा। अबै कोई हांसै तो हांसो, जगनजी बांरो कांई करता... खरी-खोटी सुणावता घर रो गेलो लियो।

अेक दिन री बात। जगनजी सौ रुपिया जमा करावण सारू बैंक पूग्या। रोकड़ियै सूं बोल्या, “अै सौ रुपिया और जमा कर लेवो, रुखाळी तो पांती आयोड़ी ईज है, पांच सौ भेळा सौ और सही।”

रोकड़ियो बांरा सौ रुपिया लेय’र बांनै जमा-रसीद देय दीन्ही। उणी बगत रावत आपरै खातै सूं सौ रुपिया निकळवाया। रोकड़ियो जगनजी वाळो सौ रुपिया रो नोट रावत रै हाथ में पकड़ा दियो। जगनजी तो झट रावत रो हाथ झाल लियो। रीसाणा होय’र बोल्या, “अै भोळी बातां और कठैई! म्हैं रुपिया बैंक में जमा करावण सारू दिया है, किणी नै बांटण सारू नीं दिया।”

रोकड़ियो घणो समझायो। जमा-रसीद री बात याद दिराई। पण जगनजी नीं मान्या। वै बोल्या, “जमा-रसीद बापड़ी कांई करै? म्हारी आंख्यां रै सामनै ईज म्हारा रुपिया रावत नै देय रैया हो। म्हैं झांसै में नीं आणवाळो। म्हारा पैलीवाळा रुपिया रुळा दिया दीसै! नीं तो म्हारा छव सौ रुपिया अबार। अबार पाछा देवो। म्हनै नीं जमा करावणा अबै अठै और रुपिया। लावो म्हारा रुपिया पाछा करो।”

“पण इणसूं आपरो खातो उठ जासी।” रोकड़ियै कैयो।

“खातो उठो, चायै बैठो। म्हैं उळझाड़ में नीं पड़ूं।” जगनजी कैयो अर छेवट वै आपरा रुपिया लेय’र ईज रैया। पण रुपिया लियां पछै बैंकवाळां नै बिड़दावता थकां इत्तो जरूर कैयो कै “भाई, थे हो तो साचा। म्हैं बायदै थां माथै बैम कर्‌यो। पण चलो, रुखाळी तो टळी।”

लोग हांसै हा। रावत कैयां बिना नीं रैयो, “भोळी बातां तो कोई थांरै सूं सीखै काका।”

बात-बात में गांववाळां रो बांनै ‘भोळी बातां’ कैवणो अखरै लाग्यो। अबै वै अणमणा-सा रैवै लाग्या। काम-काज मांय बांरो मन नीं लागतो। मन करतो कै लोगां नै आछी तरै बताय देवूं कै म्हें कदैई भोळी बातां नीं करूं। भोळी बातां करै बै कोई और होवै।

इणी बिचाळै अेक अजोगती घटणा घटगी। गांव री बैंक रा ताळा टूटग्या। जगनजी नै इणरी खबर चतरू दीन्ही। सरपंच रै कैवण सूं चतरू थाणैवाळां नै फोन करनै आवै हो। जगनजी नै देखतां बो बोल्यो, “काका, गजब होयग्यो! रात बैंक रा ताळा टूटग्या।”

“हैंऽऽ!” जगनजी रै मूंडै सूं ‘हैंऽऽ’ री लांबी आवाज निकळी। वै चितबगना-सा खासा ताळ तांई ऊभा रैया। चतरू कद गयो, बांनै भान नीं होयो। अचाणचकै बांरै मूंढै माथै मुळक सांचरी, “हूं... भोळी बातां..! अबै ठा पड़्यो नीं। म्हैं रुखाळी करतो, जद हांस्या करता। अबै रोवो आपरै करमां नै। चोखो होयो जिको म्हैं म्हारा रुपिया कढवाय लिया।”

सोचतां-सोचतां जगनजी नै जोस आयग्यो। बै बैंक कानी टुर्‌या। सगळा लोग बठै मिलैला। बांरो सोचणो साचो हो। बैंक रै बारणै आगै ऊभा लोग बंतळ करै हा। रोजीनै स्हैर सूं आयनै बैंक खोलणिया बैंक मैनेजर अेकै कानी ऊभा हा। बैंक रो जाळीदार दरवाजो खुलो पड़्यो हो। दरवाजै रै कूंटै मांय टूट्योड़ो ताळो मर्‌योड़ै मींडकै दांई लटकै हो।

अैड़ो नजारो जोय’र जगनजी उमाव में नीं मावै हा। कनै ऊभै टीकू रै खांधै पर हाथ धरता बोल्या, “अबै तो मानै है नीं, टीकू?”

“कांई?” टीकू बांरै मूंढै कानी जोवतो थको बोल्यो।

“औ ईज कै म्हैं भोळी बातां नीं करूं।” जगनजी छाती फुलावता थकां कैयो।

“थे तो सदा भोळी बातां करी। पण अबै मत कर्‌या। नींतर पुलिसवाळा थां माथै बैम करैला… अबार थाणै री जीप आवती होवैला।” टीकू बांनै समझावतो थको भीड़ सूं कीं अळगा लेयग्यो।

“म्हें चोर नीं हूं, म्हनै क्यूं पकड़ैला पुलिस?” जगनजी नै टीकू माथै अणूती रीस आयी।

“आ ईज तो बात है। थे भौत भोळा हो काका!” टीकू बानै फेरूं समझावतो थको कैयो, “थे पाधरा घरै जावो। अठै ऊभा मत रैवो, नींतर थांरी भोळी बातां थानै ईज पजाय नाखैली…।”

जगनजी नै पैली दफै डर लाग्यो… कठैई टीकू साची बात तो नीं कैय रैयो है? वै होळै-सी बोल्या, “पण बता तो सरी टीकू, पुलिस म्हनै क्यूं पकड़सी?”

“कैयो नीं। थे भोळा घणा हो।” टीकू खीजतो-सो बोल्यो, “भलाई इणी में है कै बोलबाला घरै जावो परा… नीं तो किणी पुलिसवालै नै भणक पड़गी कै थे रात नै बैंक रा ताळा खड़कावता हा, तो लेणै रा देणा पड़ जावैला।”

पण जगनजी टीकू री बात नीं मानी। पुलिस आई। पूछताछ हुई। भांत-भांत री बातां साम्हीं आयी। जगनजी रै रोजीनै रात नै ताळो संभाळण री बात साम्हीं आई। जगनजी रस लेंवता थका पुलिसवाळां नै सैंग बातां बताई। पुलिसवाळा ध्यान सूं सुणता रैया, लिखता रैया।

…अर जद पूछताछ पूरी होयां पछै पुलिस री जीप जावण लागी, तो गांववाळा देख्यो कै जगनजी पुलिस री जीप मांय बैठ्या है। बांरो मूंढो लटक्योड़ो है अर आंख्यां सूं आंसू ढुळक रैया है। आकळ-बाकळ होयोड़ा जगनजी जाण नीं पाया कै आज वै कांई भोळी बात कैय दी।

स्रोत
  • पोथी : इक्कीसवीं सदी री राजस्थानी कहाणियां ,
  • सिरजक : मदन सैनी ,
  • संपादक : मधु आचार्य 'आशावादी' ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली ,
  • संस्करण : प्रथम
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