14 अक्टूबर, 2007

आज ईद है।

ईद सूं दो दिन पैली अजमेर सरीफ में बम फूटग्यौ।

दो मरग्या, बाईस जख्मी होया।

हादसौ दरदनाक हौ, देस रै वास्तै सरमनाक हौ।

लोग इणमें पाकिस्तांन रौ हाथ बतावै।

पण...

पण, पाकिस्तांन-हिंदुस्तांन छोडौ...

पाकिस्तांन में किसा इंसान को बसै नीं अर हिंदुस्तांन में किसा हैवांन?

पाकिस्तांन रौ अेक इंसान ईद सूं पैलड़ी सिंझ्या दिल्ली रै कुतुबमीनार में ‘नवभारत टाइम्स’ कांनी सूं आयोजित ‘दिल्ली मेरा दिल’ कार्यक्रम मांय गज़लां पेस करै... गुलाम अली। श्रोता झूमै। म्हारा साथी अंगरेजी रा प्राध्यापक राजेन्द्र कासोटिया बठै विराजमांन। मोबाइल फोन माथै म्हांनैं गजलां सुणावै... लाइव। अेक गज़ल रा सेर हां...

“कैसी चली है अबके हवा तेरे शहर में

बंद हो गए हैं खुदा तेरे शहर में

क्या जाने क्या हुआ कि परेशां हो गए

इक लहजा रुक गई थी सबा तेरे शहर में

दुश्मनी का ढब है कुछ दोस्ती के तौर

दोनों का इक रंग हुआ तेरे शहर में

शायद उन्हें पता था कि खातिर है अजनबी

लोगों ने उसे लूट लिया तेरे शहर में।”

शायर तो शायर है, इण में हिंदुस्तांन-पाकिस्तांन कांई!

हिंदू-मुसळमांन कांई!

पण उण मिनख रौ कांई करां... जकौ लारलै दिनां रामस्वरूप किसान रै बारलै कमरै मांय आय’र बैठ्यौ। कमरै मांय टंगी फोटुआं कांनी आंगळी कर’र पूछ्यौ...

“आ फोटू?”

“किसोर कुमार री।” किसानजी बतायौ।

“अर आ?” उण दूजी फोटू कांनी आंगळी करी।

“मोहम्मद रफी री।”

मोहम्मद रफी रा किसानजी फेन हा। पक्का। वां रौ बेटौ किरसन ई। होठां सूं बोल फूटण रै समचै वां रै चै’रै माथै चेळकौ आयग्यौ अर आंख्यां मांय नूरांनी। जांणै मोहम्मद रफी रौ नांव लियां वांनैं घणौ गुमेज होयौ होवै।

पण...

पण, वो मिनख... जकौ फोटू कांनी आंगळी कर’र पूछै हो... उणरी आंख्यां में खीरा हा... अर इसा उण रा बोल...

“ईं तुरक री फोटू, आपरै घरां?”

सुण’र किसानजी रै चै’रै री रंगत बदळगी।

“भाई सा’ब जळ अरोगौ अर अठै सूं चालता बणौ, तुरता-फुरत। म्हैं आपसूं नीं बतळा सकूं। बस!”

वो मिनख गयौ परौ।

आज ईद है।

म्हारी नींद खुली कोनी ही अजै, विजय रौ फोन आवै।

“गुरुजी, ईद मुबारक।”

“तनैं ई।... ओर सुणा!”

“गुरुजी, ईद मुबारक रौ धांसू सो अेसअेमअेस त्यार कर’र भेजौ नीं अेक।”

“क्यूं भाई, तनैं कांई दरकार?”

“क्यूं, ईद आपणी कोनी कांई?” वो हंसतौ थकौ बोल्यौ। म्हैं हांस्यौ, “भेजूं भई, भेजूं।”

इत्तै में महबूब अली रौ मैसेज आयौ फेफाणा सूं...

“आज खुदा की हम पर हो मेहरबानी

करदे माफ हम लोगों की सारी नाफरमानी

ईद का दिन आज आओ मिल करें यह वादा

खुदा की ही राहों में हम चलेंगे सदा

सारे अज़ीजों अकरीबों को—ईद मुबारक।”

लगतौ अमीन खांन रौ मळसीसर सूं...

“ईद-दिवाळी दोनूं आवै, ईं महीनै रै मांह।

हिंदु-मुसळिम सगळा मिळै, घाल गळै में बांह॥”

म्हैं दोनूं मैसेज विजय नैं भेजूं।

घर में रुणक है।

आज बेटी नीतू नैं आपरी सहेली मैमुना रै घरां जीमण जावणौ है। वा त्यारी करै।

इणी बीच म्हांनैं अेक बात चेतै आवै, जकी नीतू री मैडम म्हनैं कैयी ही कै नीतू री संगत सुधारौ।

म्हैं घणा सवाल-जवाब नीं कर्‌या हा उण मैडम सूं, पण म्हारी चिंता बधगी ही। आथण घणै हेत सूं नीतू नैं वा ओळमैं वाळी बात बताई। सुण’र वा तो रोवण लागगी।...

“पापा, मैडम मैमुना खातर कैवै।”

म्हनैं अचूंभौ होयौ, “क्यूं?”

“मैडम नैं मुसळमांनां रा टाबर आछा कोनी लागै।”

प्रमोद नैं मुस्ताक नूंत्यौ है। मिठायां उडसी। उण मुस्ताक सारू निजरांणौ पैक

कर्‌यौ है।

वो त्यार होयौ इत्तै में तो मुस्ताक आयग्यौ। आप वाळौ फीटर लेय’र। उण रा दो बेली और हा फीटर पर वीं रै साथै।

नीतू मैमुना रै अर प्रमोद मुस्ताक रै घरां गयौ।

“दीवाळी रा दिन नेड़ै आयग्या। हारुन आज कोनी आयौ। रंग के ठा कद होसी। पंदरा बरस होग्या घर घाल्यां नैं। ईं घर रौ तौ म्हूरत उघड़णौ कोनी।” जोड़ायत रा बोल हा।

“आज तो ईद है। हारुन आज तौ आवै कोनी। ईद सूं आगलै दिन लागण री कैवै हौ।”

“तौ पूछ तौ ल्यौ फोन कर’र! तड़कै लागै तौ आज सा’मला दोनूं कमरा खाली करल्यां। बैड अर कम्प्यूटर बारलै कमरै में जचाणौ पड़सी।”

“हां भई, पूछूं।”

म्हैं हारुन नैं फोन करूं।

मोबाईल फोन री डायरेक्ट्री खोलूं। हारुन रौ नांव सोधूं अर डायल करूं।

घंटी री जिग्यां... “हरे राम-हरे राम... हरे कृष्णा... हरे राम...” सुणीजै। फोन काटूं।

सोचूं, रिंगटोन हारुन री नीं होय सकै। स्यात रोंग नम्बर लागग्या।

भळै नम्बर लगावूं। वा इज टोन!

म्हैं अजय नैं हेलौ मारूं।

वो आवै।

“बेटा, हारुन रा नम्बर देख’र बताई।”

“निनाणवै दो सौ चौरासी, पंदरा जीरौ चोमाळीस।” वो डायरी देख’र बतावै।

म्हैं भळै डायल करूं। मोबाईल फोन रै स्क्रीन पर कलिंग रै साथै हारुन रौ नांव आवै। नम्बर तौ वै इज है।

“हरे राम... हरे राम... हरे कृष्णा... हरे राम ...” अर वा इज टोन।

वो फोन रिसिव करै। म्हारै बोल्यां सूं पैली उणरी आवाज आवै, “गुरुजी, राम-राम!”

“राम-राम भई, राम-राम। ईद मुबारक।”

“गुरुजी, आपनैं ई।”

“यार, टोन? फोन तौ थारौ है नीं?”

“हां, क्यूं चोखी कोनी लागी?”

“है तौ चोखी”, म्हैं बात नैं टाळतौ मतलब री बात माथै आयग्यौ।

“हारुन, तूं तड़कै लागसी नीं? म्हैं सामांन बारै काढां।”

“हां गुरुजी, काढल्यौ। आठ बजी जास्यूं दिनुगै।”

“ठीक।”

म्हैं फोन काट दियौ।

म्हैं सामांन बारै काढण लागग्या।

म्हैं उतरादै पासै वाळै कमरै री अलमारी खाली करै हौ। ईं कमरै मांय साम्होसाम थांन है, मतलब पूजाघर है, जठै सिवजी अर गणेसजी री मूरत्यां है। दुरगा, लिछमी अर हड़मानजी री फोटुआं जचायोड़ी है। म्हैं कदै पूजापाठ को करूं नीं, म्हारी जोड़ायत नैं इण बात री घणी नाराजगी रैवै। वा है पक्की धारमिक। इस्कूल रौ बारणौ को देख्यौ नीं, पण टाबरां रै देखोदेख घरै पढगी अर अटक-अटक’र सही, आंक तो बांचल्यै है। काल बारह महीनां रै बरत-त्यूंहारां री पोथी खरीदी है। वा अठै जचा राखी है।

अलमारी खाली करतां-करतां म्हारी निजर थांनां पर पड़ी। हड़मानजी अर दुरगा री फोटू बिचाळै अेक नुंवीं फोटू दिखी म्हनैं। हाथ में उठाय’र देखी, अेक पुरांणै पोस्टकारड पर अखबार री रंगीन कतरन चिपायोड़ी। जिण माथै चांद अर तारै रौ चितरांम अर ऊपर देवनागरी अर नीचै फारसी लिपि मांय मोटै-मोटै आखरां मांय मंड्योड़ौ हौ—ईद मुबारक!

म्हारै हरख रौ पार नीं।

म्हैं वा फोटू उठा’र आंगण में लायौ अर पूछ्यौ, “आ फोटू थांनां में कुण लगाई भई?”

“म्हैं लगाई।” जोड़ायत रा बोल हा। वा मुळकती थकी म्हारौ मूंढौ जोवती वळै बोली, “पण थांनैं कोई तकलीफ?”

म्हनैं कांई तकलीफ होय सकै ही अर इण बात सूं किणी नैं कोई तकलीफ होवै क्यूं!

स्रोत
  • पोथी : साखीणी कथावां ,
  • सिरजक : सत्यनारायण सोनी ,
  • संपादक : मालचन्द तिवाड़ी/भरत ओळा ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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