मधुकर भ्रमत सुबास मद, भाल सुधाकर भास।

मोदक कर मन मोदमय, नितजय ज्ञान निवास॥

नितजय ज्ञान निवास, पती गणनायकां।

लंबोदर हरनंद सिरोमण लायकां॥

भामणि श्री ब्रजराज घणां हित सूं भजै।

सिख नख वरणूं जास बुद्धि समापजै॥

ससि बदनी तो सिर सरल, मेचक केस मजांण।

हिए कांम पावक हुवै, जास धुंवां मन जांण॥

जास धुंवां मन जाण नसां मग नीसरै।

मच्छर अच्छर गात, उड़ाया मन हरे॥

सोकड़ल्यां चख मांहि करै कड़वाइयां।

ते आंसू टपकंत हिए दुचताइयां॥

सित कुसुमां गूंथी सुखद, बेणी सहियां ब्रंद।

नागणि जाणैं नींसरी, सांपड़ि खीरसमंद॥

सांपड़ि खीरसमंद दुरंग संवारिया।

धारा फेण कलिंद, तनूंजा धारिया॥

भाषण उपमां और मनोरथ भेळिया।

मझ आटी मखतूल मोती मेळिया॥

कांन जड़ाऊ काम रा, कुंडल धारण कीन्ह।

झळहळ तारा झूमका, दुहुं पाखां ससि दीन्ह॥

दुहुं पाखां ससि दीन्ह अंधार निकंदवा।

तेजोमय रथ तास निघात पही नवा॥

मांग फूल सिर फूल जड़ाऊ मंडिया।

खिण खिण निरखै नाह, हिए दुख खंडिया॥

जड़ियों तिलक जवांहरां, जांणे दीपक जोत।

बालम चीत पतंग बिधि, हित सूं आसक होत॥

हित सूं आसक होत भली छवि भाळ री।

जुलफ बंधै मन मीन बणी रूख जाळ री॥

बरतुल सुछम कपोल रसीली बांम रा।

किया तयारी वेह दरप्पण कांम रा॥

काळी भमरावळि कळि, भूंहां बांकड़ियांह।

कमळ प्रभात विकासिया, इसड़ी आंखड़ियाह॥

इसड़ी आंखड़ियांह किया म्रग वारणै।

सर मनमथ गा हारि अंजण सारणै॥

खूबी रही काय खतंगां खंजनां।

नेही व्है मुनिराज विसारि निरंजनां॥

नाक नवल्ली नारि रै, नकबेसर घणनूर।

मोती ग्रहियां चांच मझ जांणक कीर जरूर॥

जांणक कीर जरुर महारस जांणियो।

बदन निहारै नाह सचाह बखांणियो॥

पलकां मिलबो पाल उपाव अनंदनैं।

चितवै जांण चकोरक पूरण चंदनै॥

बणियो तिल थारै बदन, नेह रसिक मननार।

तिल ऊपर तिल्लोतमां वार दई सौ बार॥

वार दई सौ बार फेर बखांणजै।

जाहर हाटक खान जिसो मुख जांणजै॥

सो जिण चौकी दैण मनोभाव साखियो।

रूप नरेसुर आप सीदी राखियो॥

फबै ललाई बिंबफल, परतख अधर प्रवाळ।

जपा कुसम जोड़ै जियां, भाखै सहियां भाळ॥

भाखै सहियां भाळ, लियां कृस भाव नै।

चित पिय कोमळ ताय बधावै चाव नै॥

महा अणूं बचनीय जिकांरी माधुरी।

दै पिय रसणां दाखि रतीही नां दुरी॥

संजम जप तप सांपरत, ब्रत जुत जोग बिनांण।

आंखि तरच्छी ईखतां, जीता समधा जांण।

जीता समधा जांण अई नव जोबनां।

मति सूं देह समेत उपज्जी मो मनां।

रंभा करै बखांण तुहाळै रूपरा।

अहरां दीजै पान अबै किण ऊपरा॥

दुरै निहारै दंतड़ा, बादळ दामणियांह।

अति ऊजळ त्यां आगळी, की हीरा कणियांह॥

की हीरा कणियांह, अलोकिक कांत री।

पूछै को कथ कुंदकळी रै पांत री॥

बरणी उपमा सार विचारि विचच्छणां।

लिया सही अवतार, बतीसां लच्छणां॥

मंत्र बसीकर मोनजै, बांणी रस बरसंत।

सरसुति बीणां प्रगट सुर कोयल लाज करंत॥

कोयल लाज करंत जगावै काम नै।

रीझावै अदभुत आतमरांम नै॥

काज सही बिसराय सुणेबो कीजिए।

प्याला श्रवणां पूर सुधारस पीजिए॥

जिनके मस्तक से स्रवित मद की सुगंध से आकृष्ट हुए भ्रमर चारों ओर मंडरा रहे हैं। जिनके ललाट में बाल-चंद्र शोभायमान है। जिनके कर-कमल में लड्डू शोभा पा रहे हैं तथा जिनका मन सर्वदा आनंदमय रहता है। जो विजय तथा विवेक के अधिष्ठाता हैं। जो गणाधीश हैं,जिनका उदर विशाल है, जो शिव-पुत्र तथा शिष्टता के अधिष्ठान हैं। वे बुद्धि-निधान भगवान् गणेश जी मुझे ब्रजराज श्री कृष्ण की हृदयेश्वरी, प्रेम एवं लावण्य की प्रतिमूर्ति भगवती राधिका जी के श्री विग्रह के सर्वागपूर्ण(पाँव के नख से चोटी तक के अंग) चित्रण हेतु पर्याप्त ज्ञान-शक्ति प्रदान करें।1

हे चन्द्रमा जैसे मुखवाली, कृष्ण प्रिया श्री राधिका जी! आपके श्याम वर्ण वाले सघन एवं लंबे बालों की काली नागिन जैसी वेणी श्री कृष्ण के ह्रदय में कामाग्रि जगाने वाली है(प्रज्वलित करती है)। जिसका धूम्र शिराओं के माध्यम से बाहर आता है। जिसके प्रभाव से अप्सराओं के रूप के मद रूपी मच्छर उड़ जाया करते है। सौतों(सपत्नियों) के नेत्रों में कड़वाहट पैदा हो जाने के कारण वे दुःखी होकर आँसू बहाने लगती है।2

श्री राधिका जी की सखियों के समूह ने उनकी चोटी में श्वेत वर्ण के सुमनों का सदुपयोग करके उसे और अधिक सुन्दरता प्रदान कर दी है। वह श्याम वेणी श्वेत सुमनों के संयोग से ऐसी मन-मोहक प्रतीत होती है, मानो काली नागिन क्षीर कुण्ड में स्नान करके निकली है। अथवा यमुना की काली जल धारा पर उज्ज्वल बुदबुदे उठे हुए हो या ऐसा भी कहा जा सकता है मानो अश्वेत रेशम की वेणी में श्वेत वर्ण के मोती संजोये गये है।3

ब्रज दुलारी श्री राधिका जी के श्रवणों में रत्न-जड़ित कुण्डल दैदीप्यमान हो रहे हैं, जो ऐसे सुखद प्रतीत हो रहे है मानो चन्द्रमा-निशिनाथ ने अपने दोनों ओर सितारों के सुन्दर गुच्छे धारण कर रखे हैं। जिनके सहारे वे इस सृष्टि के अंधकार का निवारण करते हैं। राधिका जी के सुरम्य कुंडल भगवान् भास्कर के रथ के दो नवीन पहियों जैसे भी प्रतीत होते है। उनकी माँग में तथा उनके शीश में भी रत्न-जड़ित फूल शोभायमान है, जो उन्हें निहारने वाले प्राणनाथ को प्रतिपल आनंद प्रदान करके उनके विषाद का निवारण करते हैं।4

श्री वृषभानुनंदिनी के ललाट के मध्य जवाहरात जड़ित तिलक ऐसे आलोकित हो रहा है मानो दैदीप्यमान दीपक है, जिसकी ओर प्रीतम-प्राणनाथ का चित्त पतंगे की भाँति बरबस आकृष्ट हो जाता है। उनके घुँघराले काले बालों की लटें प्रियतम की मनोभावों रूपी मछलियों को फँसाने के लिए गूँथे गये जाल का कमाल कर रही हैं। उस लावण्यवती के कपोलों के मध्य पड़ने वाले सूक्ष्म चक्रों के कारण उसकी मनोहर मुखाकृति को विधाता ने कामेच्छा का दर्पण बना दिया है।5

कनुप्रिया राधिका जी की वक्र भृकुटी श्याम वर्ण के भ्रमरगणों की(धनुष की भाँति) पंक्ति जैसी सुन्दर है। उनके नयन प्रभात वेला में पूर्ण विकसित हुए कमल की भाँति मनोहर लग रहे हैं, जिनके ऊपर मृग के नयन भी न्यौछावर हो जाते हैं। अंजन(काजल) लगाने के अनंतर तो वे नयन कामदेव के तीक्ष्ण बाणों से भी अधिक प्रभावशाली प्रतीत हो जाते हैं। चकोर के नेत्रों के समान उन चंचल नेत्रों को निहार कर तो मुनिगणों का मन भी ईश्वर के चरणों का अनुराग छोड़कर उनकी तरफ आकृष्ट हो जाता है।6

मुक्ता मंडित बाली के कारण उन कृष्ण प्रिया राधिका जी की नासिका चोंच में मोती लिए हुए तोते की नासिका जैसी मनोहर लग रही है। प्रियतम उस अनुपम छवि को अपलक निहारते ऐसे प्रतीत हो रहे हैं मानो चकोर पूर्णिमा के चन्द्रमा की छवि को निहारने में आनन्दमग्र हो रहा हो।7

उन चन्द्रबदनी श्री राधिका की मुखाकृति काले तिल के कारण इतनी अधिक कमनीय प्रतीत हो रही है कि उसके ऊपर तिलोत्तमा जैसी अनिंद्य सुंदरी(अप्सरा) भी सौ-सौ बार न्यौछावर जाती है। स्वर्णिम आभा वाले उस मुख-मंडल पर काला तिलक ऐसा प्रतीत होता है मानो उस सृष्टिकर्ता रूपी राजा ने श्री राधिका जी की मुखाकृति रूपी सोने की खान की सुरक्षा के लिए(पहरा देने) सीदी(काले वर्ण की जातिवाला मनुष्य जो अत्यंत विश्वसनीय माना गया है) को पहरेदार नियुक्त करके बैठा दिया है।8

उन चंद्रबदनी के ओठों की लालिमा प्रत्यक्षतः मूंगे की लालिमा जैसी शोभायमान हो रही है। सखियाँ उनके आठों को गुढाव के पुष्पों की जोड़ी की उपमा दे रही हैं। कमल अथवा गुढाव के पुष्प की पंखुड़ियों जैसे उन ओठों का पतलापन एवं कोमलता प्राणनाथ के मन को अत्यंत आनंद प्रदान करने वाला है। उनकी मनोहरता का वर्णन तो किसी सूक्ष्म बुद्धिवाले साहित्यकार के वश की बात है। प्रियतम तो उनकी मनोहरता की मादकता के प्रभाव से प्रिया के सम्मुख मन के सभी प्रकार के सूक्ष्म भेद भी खोलने के लिए विवश हो जाते हैं।9

उन सर्वांग सुन्दरी राधिका जी की बाँकी चितवन के प्रभाव से जितेन्द्रिय, प्रभुनाम के जप में मग्न रहने वाले, तपस्या करने वाले साधक, व्रत आदि के द्वारा मन को वश में करने के लिए प्रयन्तरत साधक एवं प्रभु कृपा के आकांक्षीजन सभी उन राधिका जी के सम्मुख सर्वतोभावेन समर्पण करने के लिए विवश हो जाते हैं। दर्शक को वे नवयौवना उसके मन से उत्पन्न हुए संदेह(बुद्धि) जैसी प्रतीत होती है। देवराज इंद्र की रंभा नामक अनिंद्य सुन्दरी(अप्सरा) भी राधिका जी के ओठों के लावण्य की सराहना करती है। उन सुंदर अधरों को तो पान के बीड़े की कोई आवश्यकता ही नहीं है क्योंकि उनकी प्राकृतिक लालिमा के सम्मुख पान चबाने से उत्पन्न होने वाली लालिमा सर्वथा महत्वहीन ही लगती है।10

श्री कृष्ण की प्रिया राधिका जी के छिपे हुए दाँतों की आभा का अवलोकन करते ही उनकी छवि के सम्मुख अपने को सर्वथा कान्तिहीन अनुभव कर विद्युत अपने आपको बादलों की ओट में छिपा लेना ही उचित अनुभव करती है। दंतावली से जुड़े हुए हीरों के टुकड़ों के कारण उनकी सुन्दरता में चार चाँद लग गए हैं। उनकी मोगरे की कलियों जैसी पंक्तियों की अलौकिक आभा का बखान कौन कर सकता है? कवियों ने सभी उपमाओं के सार रूप में श्री राधा की बत्तीसी को बत्तीस लक्षणों के साक्षात् अर्थात् सभी शुभ गुणों के समूह के अवतार की संज्ञा देना ही सार्थक समझा है।11

उन मूर्तिमान शृंगार की वाणी से निकलने वाले वचन वशीकरण मंत्र ही मानो, वे इतने सरस तथा सुमधुर हैं कि सुनने वाला सर्वतोभावेन उनके अधीन हो जाता है। माँ शारदा की वीणा की स्वर लहरी की भाँति उनकी कंठ-ध्वनि की कोमलता के सम्मुख तो कोकिला भी अपना स्वर मुखरित करने में लज्जा अनुभव करती है। कोकिला के स्वर से भी अधिक सरसता के कारण उन महानायिका की कंठ ध्वनि प्रियतम के घट में काम भाव की जागृति का कारण बन जाती है। उनकी वह श्रवणानन्द प्रदान करने वाली स्वर लहरी अवधूतों के अन्तस्तल में आत्मानंद का संचार करने वाली सिद्ध होती है। साधकों को सभी प्रकार के दुसरे काम छोड़कर अपने श्रवणों रूपी प्यालों को परिपूरित करने हेतु उस अलौकिक स्वर-सुधा का पान करना चाहिए।12

स्रोत
  • पोथी : बांकीदास- ग्रंथावली ,
  • सिरजक : बांकीदास ,
  • संपादक : चंद्रमौलि सिंह ,
  • प्रकाशक : इंडियन सोसायटी फॉर एजुकेशनल इनोवेशन, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
जुड़्योड़ा विसै