चोमेर्याँ छाई हरियाळी
पग पग बिखरी छाँव रुपाळी
बेफिकरी सूं बेतो पाणी
मन हरती कोयल की बाणी
पत्तो-पत्तो सुळकै पण—
समाधी धार्यां री सूखो रूंखड़ो
हरी भरी बनराई में—
ऊभो मन मार्यां री सूखो रूंखड़ो
कुण जाणै या कुणकी माया
कोई भूखा कोई धाया
म्हाँ भूखा ने बुरा बतावां
वांकी पीड़ समझ न्हं पावां
सूरज का आतप सूं दाजै
माथा ऊपर अम्बर गाजै
झड़ चूमासो, गळतो स्याळो
ऊघाड़ा डीलाँ री—
सूखो रूंखड़ो॥
हरिया दरखत मौज मनावै
देख बुढ़ापौ वै हरषावै
पण जोबन बसंत दो दन को
सुख तो एक भरम छै मन को
यो दन तो सवको आणो छै
जे आयो जींनै जाणो छै
एक दन आवैगो पतझड़
छिन में करज्यागोरी—
सूखो रूंखड़ो॥
रात डरै न दिन सुख पावै
सभी चौघड़्या काळ बतावै
बरबूल्याँ आंधी भी आवै
अळा-पळा की धार सताबै
गिद्धां की असवारी बणतो
कठफोड़ां की चूंचा गणतो
ईं तपसी की साध पुराणी
जंगळ में मंगळ री—
सूखो रूंखड़ो॥
ई हालत में कुण सुख पावै
अपणा भी बैरी बण जावै
ऊंका तन पै सस्तर चालै
सूखा हाड़ कठी न हालै
दूजां के खातर यो बळतो
मनख मनख ही इनै छळतो
पण, सागर में होवै तो तारै
पाय उतारै री
सूखो रूंखड़ो