सकति काइ साधना, किना निज भुज सकति,

वडा गढ धूणिया वीर वांक।

अवर उमराव कुण आइ साम्हौ अड़ै,

सिवा री धाक पातिसाह सांकै॥1॥

खसर करता तिके असुर सहु खुंदिया,

जीविया तिके त्रिणौ लेहि जीहैं।

सबद आवाज सिवराज री सांभळै,

बिली जिम दिली रो धणी बीहैं॥2॥

सहर देखे दिली मिले पतिसाह सूं,

खलक देखत सिवौ नाम खारै।

आवियौ वळे कुसळै दळे आपरै,

हाथ घसि रह्यौ हजरत्ति हारै॥3॥

कहर म्लेच्छां शहर डहर कन्द काटिबा,

लहर दरियाउ निज धरम लौचै।

हिन्दुऔ राउ आइ दिली लेसी हिवै,

सबळ मन मांहिं सुलताण सोचै॥4॥

स्रोत
  • पोथी : प्राचीन राजस्थानी काव्य ,
  • सिरजक : धर्मवर्धन उपाध्याय ,
  • संपादक : मनोहर शर्मा ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण