कोयल बोलै बाग में कामण बोलै गेह।
फागणियौ बरसा रह्यौ घर घर आकर नेह॥
जोबन गंधावण लग्यौ, घर, आंगण, पथ, द्वार।
छुवन मीत री देयगी, मन नै पंख हजार॥
कठै उड र् यौ रंग तौ, कठै बाज र् या चंग।
पीठ ठोक र् यौ सब जगां, सबकी खड़्यौ अनंग॥
फागण किलक्यौ गांव में, मुळक्या सब रा होठ।
चावै कोनी अै नयण, अब घूंघट री ओट॥
खेतां, बागां, घाटियां में आमां री छांव।
फागण आयौ आयगौ याद आपरौ गांव॥
अमराई री गंध में, भीज्या दिन अर रात।
बिन थारै मनवौ रचै, फागण किण रै साथ॥
बिछी दूब री बाग में सेज और थे पास।
मुसकिल है अब मन, नयन, अधरां पर विसवास॥
पग बढ़ावतौ आयगौ, फागण अपणै द्वार।
खेत-खेत में बंध रह पीळी बंदणवार॥
सौरभ थारै रूप री, बिखरी च्यारूं मेर।
भंवरां ज्यूं थारी गळी, उडणै लग्या किसोर॥
पीळौ तन, पीळी चुनर, पीळा पीळा खेत।
कविता लिखबा नै ‘सजळ’, कर र् या है संकेत॥