निरमोही निरलज्ज सुंण, काहे हुऔ निकाज।
माधव विरियां माहरी, कहां गमाई लाज॥
तात मात थारै नहीं, भ्रात बंधु नहिं कोय।
पांति विहूंणौ परम गुरु, लाज कठा सुं होय॥
सरम होत है पाघ की, सो तुम बांधत नांह।
धर हो मुकुट बनाय कै, मोरपिच्छ सिर मांहि॥