ताल हीन इक दूसरो, तान हीन पहिचांन।
तीजो कहियतु काक सुर, अपर भंग सुर जान॥

बांके भौंह ग्रीवा वदन करन पंचमो एह।
छठये ज्यों गावत तबै, अधिक डुलावत देह॥

कहत सातमों भेद सुर, बिन जाने गावंत।
अष्ट कपाली सुरन ही, सुधरन चित भावंत॥

ए दस वरने राग के, प्रकट दीख मतिसार।
इनहिं त्यागि गावत गुनी, तो रीझै सिरदार॥

कहत सपत सुर राग गुन, अरु उतपत के देव।
अब आगै वरनत सुघर, राग-रागिनी भेद॥

राग कहै खट राग है, त्यै ही तीस प्रमांन।
राग राग प्रति पांच तिये, जानत जान सुजांन॥

गात वरन तन वसन  रितु, भूपन रूप सुभाय।
हाव भाव सुर जाति सौं रागिनी तीस गिनाय॥

राग सिरोमन प्रथम है, भैरव संकर रूप।
बरनत सो सिरदार है, सुनौ सुपंडित भूप॥
स्रोत
  • पोथी : सुर-तरंग ,
  • सिरजक : सरदार सिंह ,
  • संपादक : डी.बी. क्षीरसागर ,
  • प्रकाशक : राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर। ,
  • संस्करण : प्रथम