कुदरत रौ लिखत लिखांणौ कमधां,रजवट री छोड़ी जद रीत।

छोरू कांहूं जोर चलावै,बदळै आंख जदी मावीत।

दीधै रा बैणार दुनी में, बांधौ की ज्यांरै वंधेज।

जासी त्याग घरां सूं ज्यांरे, जातां खाग लागै जेज।

साहिब आगे कूक सुणावे, बंगळै जाय लखाया बोल।

धर रौ तोल बांधौ धणियां, त्याग तणौ की बांधौ तोल।

मुरधर तणौ सलीकौ मोटौ, कर ने कोय सुधारौ काथ।

पोचै कांम घालौ सुपहां, हीमत हार ओहाळा हाथ।

खूनी हुवै जिकां ने खोसौ, मलगोबे तज रीस मथै।

दव ज्यूं मत बाळो सिरदारां, सूकां नीलां एक सथै।

लीधा थांरा गांम लखावे, आनै पूछो जाब अचूक।

दाधा दूध तणा मत देवौ, फीकी छाछ खमै नह फूंक।

गुळ खळ एकण भाव गणंतां, देस विदेस देसी दाद।

माँरै जोर दा थां माथे, मांरी थां हाथे मरजाद।

लंग-भंग री खंर लेण रौ, दुऔ सुपातां ईस दियौ।

भंग लंग री खैर भांजतां, कमधां आछौ कांम कियौ।

सरधा सारू त्याग समपतां, लांठापे कुण खोस लये।

नागा होय बना के नाजै, दूथी ज्यां की ताव दियै।

‘बाळकनाथ’ साच मुख बोलै, कथनां कदै कूड़ कहै।

खटब्रन सदा थांहरै खोळै, राखौ थे जिण रीत रहै।

चारां नरां सुणौ! कळचाळाँ, गलां पुरांणी जगत गवै।

छोरू होवै कदा कुछोरू, निरमोही मावीत वै॥

स्रोत
  • पोथी : दरजी मयाराम री बात ,
  • सिरजक : बुधजी आशिया ,
  • संपादक : शक्तिदान कविया