आदि गुर अंत बिना एकं, विद्या विधि मडीय विमेकं।

अलख अलिखित सांमि सहंसुर, पुर अमरपुर पत्ति।

सब जिंद रोजी दियै सोइ, करै मिहरि और कोइ।

पैर सकळ संसार प्रगट, आदि मनै अघट वट तटतट।

तन मन तै तत्ति भजे इणि भक्ति, सत्ति मीरां सत्ति॥

नाएय नवलाख विधि निमंधे, सलिभ चर चत्र सहंसे।

अस्ट लख खेचर उपाये, वंनि वनि सवत्त।

खांणि इंडज संख्यां एतं लखां त्रइलोक ते तत्त।

दै मुगति दत्त अविगत्त कहि अविगत्त॥

नाखत्र माळ लाख नवयं, सघण घण चत्र लाख सवंय।

अस्ट लख परबत्त ओपति, खरं स्वदेज खांणि।

रहमाण सकळ संसार रचिता, जोति तूं तनं जेता।

पढ़ितौ तुंहीं पुराणि वांचयंति वाणि वाणि इक्क करि जाणि॥

नग उभै नव लख निमतं, चतुर नग चत्रलाख चवितं।

मेक नग लख आठ मुणीयै, जरा खांणि ति जोई।

एह डूंगर प्रभु उपाये, जांइ तं पणि तंन आऐ।

का ख...... सुरगिर विचि कहाऐ, भाइतां गाऐ सुणाऐ।

जणं सयणं एम जोइ, सुरं सुबयंतांइ सोइ कोइ अवर कोई॥

नव लाख वणराइ निगध नोमवि, चतुर लख सोरंभ सौ चवि।

अष्ट लख औषध में खांणि अदभु खोजि।

पाठ त्यां तूं नीर पूरै, चरण वळि-वळि जिसा चूरै।

देव समरथ लियण देयण, वारणं वयणं घणा सयणं।

त्रिनयण सुखयं तोजि, विधि जै एकणि वोजि, सोजि सम्मरि सोजि॥

स्रोत
  • पोथी : डूंगरसी रतनु ग्रंथावली ,
  • सिरजक : डूंगरसी रतनू ,
  • संपादक : सौभाग्यसिंह शेखावत ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी शोध संस्थान, चौपासनी ,
  • संस्करण : प्रथम
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