चित्रकूट पर्वत चउसाल, वसुधा-लोचन जेसु विसाल।

सुर-नर-किंनर तणउ निवास, रांम रह्या था जिहां वनवास॥

गिरवर ऊपरि दूढ दुरंग, विषम ठाम गढ अति हि उतंग।

गयणह पडण विधाता डरी, जाणि कि थंभ दीउ थिर करी॥

विषम घाट गढ विसमी पोलि, अति उंची कोसीसां ओलि।

संचा माँहि घणा साँसता, अणभंग कोट घणी आसता॥

वांक दुवारा विसमी गली, विकट कोट अति विसमउ वली।

अणजाणिउ सकइ नीकली, कद ही कोइ सक्कइ कली॥

माँहि मनोहर महल अनेक, सगला लोक वसइं सविवेक।

त्याग भोग सहु लाभइं तिहां, सुर इम जांणइ इणि गढि रहां॥

चउरासी चोहटा हटसाल, मणिमय तोरण झाक-झमाल।

गोख घणा उंचा आवास, राजभवणि संधिउ आकास॥

घरि-घरि गोख घणा पाखती, रंगि रमइं बेठी दंपती।

गोखइँ-गोखि घणी जालिमा, तिहाँ बेठी दीसइं बालिका॥

कमल-वदन गज-गति-गामिणी, कोमल तन दीसइं कामिनी।

सात भुंया उंचा आवास, लोक वसइं सहु लील विलास॥

स्रोत
  • पोथी : गोरा बादल पदमिणी चउपई ,
  • सिरजक : हेमरतन सूरि ,
  • संपादक : मुनि जिनविजय ,
  • प्रकाशक : राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ,
  • संस्करण : द्वितीय
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