चाप चढावन कौ गनै, सकै न अवनि छुड़ाइ।
भई उर्व्वी निर्वीर अब, कह्यो जनक अकुलाइ।
जो जानत निर्वीर भुव, तो न करित पन एहु।
पावक प्रजवल गेह अब, तब कहँ पइयत मेहु।
रही कुँवारी कन्यका, लिखत विरंच ललार।
पन कीनौ जो परिहरौं, तो उपहास संसार॥
अवन शोच अवधेश करहु मम रहत जु किंकर।
पैठि अगम पाताल अमृत आनौ छन अंतर।
निसा नाथ निप्पीडि सुधा लक्ष्मन मुख मेलौं।
तव प्रताप रघुतिलक खेल भुज बल यह खेलौं।
दिन मणि मुहि आए विनु दरस देइ तन ही काहू डरौं।
कहि मारुति तौ द्वादश अरक करनि मीडि चूरन करौं॥