कासूं नर उद्दम करै, ठाकर करै सो थाय।
गऊं (तो) जींमै बांणिया, करहा कूरी खाय।
करहा कूरी खाय, तपत बैठै ऊनाळै।
सीयाळै सी खाय, वळै भींजै वरसाळै।
ब्रवै माल हाटां बिचै, साह लोग सारां सिरै।
ओपला राम करसी उद्दम, कासूं नर उद्दम करै॥
कोई साधारण जन कुछ पुरूषार्थ करे भी तो कैसे? यहाँ तो सब कुछ ठाकुर का किया ही होता है। कैसा आश्चर्य है कि दुकानों पर बैठने वाले साहूकार बनिये तो गेहूँ खाते हैं और खेतों में पसीना बहाने वाले किसानों को खाने के लिए केवल कूरी (सबसे निम्न श्रेणी का खाद्यान्न) नसीब होता है। इतना ही नहीं, कूरी खाने के बाद भी किसान ग्रीष्म ऋतु की भीषण गर्मी अपने सिर पर सहन करता है, होता यह है कि किसानों की सारी उपज का माल तो साहूकार लोगों द्वारा अपने कर्ज के एवज़ में बाजार में आने पर हड़प कर लिया जाता है और किसान के लिये भगवान ही कुछ करेंगे तो होगा अन्यथा साधारण जन के परिश्रम से कुछ भी होने वाला नहीं है।
(तत्कालीन सामाजिक स्थिति और साधारण जन एवं कृषकों के शोषण पर आज से दो सौ वर्ष पूर्व व्यक्त की गयी की ये पंक्तियाँ वर्तमान परिवेश में भी कितनी सत्य प्रतीत होती हैं? इस अभिव्यक्ति से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ओपा आढ़ा कितना संवेदनशील और सामाजिक जीवन में समता का पोषक था। निस्संदेह, वह युग से बहुत आगे सोचने वाला क्रांतिद्रष्टा कवि था।)