हिव किरमाळ पहारि धारगढ़ गाहवि छंडू।

कस बेकड़ी किवाण पट्टि किलवायण खंडूं।

भुजबलि भल्लइ भिड़िअ भरी भय भरुयचि पइसूं।

धरीअ खंभाइच्च असुर सिर चंपवि बइसूं।

प्रह ऊगमि पट्टणि पट्ट करि, धगड़ायण धंधळि धरूं।

ईडरवह रा रणमल्ल कहि, इक्क छत रवि तळि करूं॥

ईडरधिपति राव रणमल्ल कहता है कि- मैं अपने असिप्रहार से धारगढ़ के यवनों को नष्ट करके छोडूंगा। कवच और कृपाण बांध कर मुगलों के शासन को स्ववश कर लूंगा। मैं भुजबल भाले से भिड़ कर यवनों में भय का संचार करता हुआ भरोंच में प्रवेश करुंगा। खम्भाइच के यवन को अपने अधिकार में करके उस असुर के मस्तक को दबा कर ही चैन लूंगा। इस प्रकार समस्त पृथ्वी पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लूंगा। अर्थात् समग्र देश से यवनों को मार कर भगा दूंगा।

स्रोत
  • पोथी : रणमल्ल छंद ,
  • सिरजक : श्रीधर व्यास ,
  • संपादक : मूलचंद ‘प्राणेश’ ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर
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