बिन बिस्तर अंग सुरंग रसी, सुहलै जनुस मदंन कसी।

लव लोनइ लोइ उबट्टनकौं, कि बस्यौ मनु कांम सुपट्टन कौं।

द्रिग फुल्लिय कांम विरांमन कें, उघरै मकरंद उदै दिन कें।

बिन कंचुकि अंग सुरंग खरी, सुकली जनु चंपक हेम भरी॥

सुभई लट चंचल नीर भरी, तिनकी उपमा कवि दिब्य धरी।

तिन सों लगि कें जल बूँद ढरै, सुछटै मनु तारक राह करे।

जु कछू उपमा उपजी दुसरी, मनोंमाटय स्यांम सुमत्ति धरी।

अति चंचल ह्वै बिछुटैं मुखतें, मनो राह सभी सिसुता बखतें॥

सुमनो सति स्वात असुत्त इंय, तिनकी उपमा बरनी हियं।

कबहूँ गहि सूक्त सिखंड बरें, मनों नंखत केसन सिंदु सरें।

जुसितं सित नील लिलाट धसैं, सुमनों भिदि सोमहि गंग लसैं।

जल में भिजि भूंह कला दुसरी, सु लरैं मनु बाल अलील खरी।

बुधि चित्त उपपंम कितीक कहौ, जिन पाट अमै ब्रत वेद लहौ॥

स्रोत
  • पोथी : पृथ्वीराज रासो ,
  • सिरजक : चंद बरदाई ,
  • संपादक : श्रीकृष्ण शर्मा ,
  • प्रकाशक : साहित्यागार, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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