स्तवन करि बंधवसार, जेठउ वमिलभद्र अनुज मोरार।

कर सपुट जोड़ी अंजुली, नेमिनाथ सनमुख संभळी॥

भवीयण हृदय कमल तू सूर, जाई दुःख तुझ नामि दूर।

धर्म्मसागर तु सोहि चंद, ज्ञान कर्ण्ण इव वरसि इंदु॥

तुझ स्वामी सेवि अेक घड़ी, नरग पंथि तस भोगळ जड़ी।

वाइ वागि जिम बादळ जाइ, तिम तुझ नामि पाप पुलाइ॥

तोरा गुण नाथ अनंता कह्या, त्रिभुवन मांहि घणा गहि गह्या।

ते सुर गुरु वाल्या नवि जाइ, अल्प बुधिमि किम कहाइ॥

नेमनाथ नी अनुमति लही, बल केसव वे बिठासही।

धर्मादेस कह्या जिन तणा, खचर अमर नर हरख्या घणा॥

अेके दीक्षा निरमल धरी, अेके राग रोस परिहरी।

अेके व्रत वारि सम चरी, भव सागर इम अेके तरी॥

स्रोत
  • पोथी : संत कवि यशोधर गुटका पोथी ,
  • सिरजक : संत कवि यशोधर ,
  • प्रकाशक : श्री दिगम्बर जैन मंदिर, नैणवा, बूंदी
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