परथम सुमिरौ सिरजनहारा, अलष अगोचर ये ऊंकारा।

अधम ऊधार अधार निरंजन, मलिन रसन सुमिरन तिहि मंजन।

ब्याध असाध महा अपराध, बिधि सुमिरन ते होत समाध।

जिहि रसना सुमिर नर सरसी, प्रगट भयौ ज्यौ सविता ससी।

सुमिरन रसना रसना पीजै, तिंह रसना षटरस कत दीजै॥

स्रोत
  • पोथी : जान-ग्रंथावली, भाग-4 ,
  • सिरजक : जान कवि ,
  • संपादक : वंदना सिंघवी ,
  • प्रकाशक : राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर ,
  • संस्करण : प्रथम