जि बुंबाअ बुंबा उलक्कि सलक्कि,

जि बक्कि बहक्किं लहक्कि चमक्कि।

जि चंगी तुरंगी तरंगि चड़ंता,

रणमल्ल दिठ्टेण दीनं दड़ंता॥

जि मुद्दास मुद्दा सदा रुद्द सद्दा,

जि बुंबाळ चुंबाळ बंगाळ बंदा।

जि झुज्झार तुक्खार कम्माल मुक्कि,

रणमल्ल दिठ्टेण ते ठाम चुक्कि॥

जि रुक्का मलिक्का बलक्का कपाड़ी,

जि जुद्धा मुडुद्धा सनद्धा भजाड़ी।

तिभू खांडीआ घड़ी दंड किज्जि,

रणमल्ल दिट्ठि मुंहि घास लिज्जि॥

जि बक्का अरक्का सरक्का बहंता,

जि सब्बा सगब्बा झरब्बा सहंता।

जि जुज्झार उज्जार हज्जार चल्लि,

रणमल्ल दिट्ठि मुंहि घास घल्लि॥

उसके भय से जो नक्कारची हैं, उनके नक्कारे फिसल कर गिर पड़ते हैं। जो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, वे लहक मात्र से बहक जाते हैं और जो यवन सुंदर तथा अच्छे घोड़ों पर चढ़ते थे वे रणमल्ल को देख कर (पैदल ही) भाग खड़े होते हैं हैं।

जो उदास, प्रसन्न चित्त और हमेशा रोनी आवाज वाले, नक्कारबंद, चंबल और बंगाल निवासी यवन योद्धा हैं, वे सभी रणमल्ल को देखते ही तलवार एवं घोड़ों को छोड़ देते हैं और स्थान-भ्रष्ट हो जाते हैं।

जो अय्यार, मलिक, बलख देश के, कापड़ी (इत्यादि यवन हैं), जो युद्ध में मुर्दों को भी भगा देते हैं, जिन्होंने घड़ियाल के डंडे के समान चोट करके तीनों भवनों को (अर्थात् सभी को) वशीभूत कर लिया है, वे सभी यवन रणमल्ल को देखते ही मुंह में घास ले लेते हैं।

जिनके वचन तीक्ष्ण शर के समान चलते थे। जो सभी सगर्व प्रहारों को सहते थे। जो योद्धा हजारों लोगों को उजाड़ में चलने के लिए (विवश) कर देते थे, (वे स्वयं) रणमल्ल को देख कर मुंह में घास दबा लेते हैं।

स्रोत
  • पोथी : रणमल्ल छंद ,
  • सिरजक : श्रीधर व्यास ,
  • संपादक : मूलचंद ‘प्राणेश’ ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर
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