भर्‌यां मांग सिंदूर मारग्ग भाळै।

वहै सामलो ब्रज्ज सेरी विचाळै॥

वहै लार लव्वार पिंडार बाळै।

नवा नेह सूं तेह गोपी निहाळै॥

हरी हो, हरी हो, हरी धेन हांकै।

झरूंखां चढी नंदकुम्मार झांकै॥

अहीराणियां अव्वला झूल आवै।

भगव्वान नै धेन गोप्यां भळावै॥

इकी वेवटी चोवटै आय ऊभी।

संभाळी लियो स्याम मोरी सुरभ्भी॥

हुई नदं री धेन सूं धेन हेळा।

भिळै वाहळा जांणि श्रीगंग भेळा॥

पुळी नैर नीसार आवी प्रहट्टै।

त्रिवेणी उळट्टीय समंद्र तट्टै॥

महक्कंत सौंधा तणी सौढ माथै।

हरी मंजरी तिल्लकं वेण हाथै॥

वई वांसळी सिंग्गळी नाद वातां।

गळै माळ गुंजा ब्रजं बाळ गातां॥

सबै आमला-सामला प्रत्यसद्दा।

जमूनां तणै तीर आहीर जद्दा॥

रमेवा सबै साथ सूं हेक रागै।

कहै कीजियै कान्ह भीरू विभागै॥

वईकुंठ रो नाथ रूड़ी विचारी।

किया सारखा लोक बेहूं किनारी॥

पखै-पार पिंडार था दोहूं पासै।

लियां लक्कड़ी कंध ऊभा हुलासै।

घड़ू गेडियै गेंद मैदान घेरी।

घणी घूमरे डंबरै घेर घेरी॥

झिलै आवता ऊलटै हेक झेरै।

फिरी राम चोटां कही दोट फेरै।

मंझी आकरो मांझियो खेल मातौ।

रमै संग गोवाळियां रंग-रातौ॥

मिळै चोट सांमो सभी दोट माथै।

हुई दुहूं मल्लां तणी हेल हाथै॥

चढावै घणूं सांकड़ै तीर चाढै।

जमूनां तणै नांखियौ नीर जाडै॥

दड़ी लार कान्हौ चढ्यौ व्रच्छ डाळी।

भरी झंप काळीद्रहै नाग-वाळी॥

काळीनाग रा कान्ह संभाळ केवा।

लधी जाण त्रूट्यौ दधी मच्छ लेवा॥

मंड्यौ दूसरौ खेल खेलत माथै।

हिवै ऊतरी वात गोवाळ हाथै॥

करै त्रीण खंडो नमंतेय कान्हा।

जोवै धेन धद्धीक कांठै जमन्ना॥

स्रोत
  • पोथी : प्राचीन राजस्थानी काव्य ,
  • सिरजक : सांयो झूलो ,
  • संपादक : मनोहर शर्मा ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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