जाळ (salvadora olcoides) शुष्क जलवायु में पनपने वाला महत्वपूर्ण पेड़ है। इस वृक्ष को पीलू और मिसवाक भी कहा जाता है। इसका उल्लेख महाभारत के करण-पर्व में भी मिलता है। सिक्ख धर्म के संस्थापक गुरु नानक के जीवन-वृतांत में भी उल्लेख मिलता है कि वे भ्रमण के दौरान धूप और तेज गर्मी से बचने के लिए इस वृक्ष की छांव का आसरा लेते थे।
पश्चिमी राजस्थान भले ही विकट प्राकृतिक हालातों वाला क्षेत्र है पर प्रकृति ने इस भूभाग को कुछ सौगातें भी दी हैं। जाळ का पेड़ भी इनमें से एक है।
वैसे तो राजस्थान के मरुस्थली भूभाग में यह पेड़ अमूमन मिलता है पर इसकी अधिकता पश्चिमी जिले जालौर में है। जाळ के आधार पर ही इस जिले का नाम जालौर पड़ा। इस पेड़ की दो किस्में होती हैं जिन्हें मीठी और खारी जाळ नाम से जाना जाता है। ये दोनों प्रजातियां विकट परिस्थितियों में भी खूब हरी-भरी रहती हैं।
जाळ के पेड़ की ऊंचाई 18 से 30 फीट और तने की चौड़ाई तकरीबन 10 फीट होती है। इस पर चैत्र मास में नई पत्तियां आना शुरू होती हैं और ज्येष्ठ मास आने तक ये पत्तियां काफी मोटी व शुष्क हो जाती हैं। वैशाख माह (मई-जून) में जाळ पर हरे व सफेद रंग के फूल आना शुरू हो जाते हैं और जेठ-आषाढ़ तक ये फूल पीले-लाल रंग के चने के आकार के फलों में बदल जाते हैं। इन फलों को ‘पीलू’ कहा जाता हैं। ये खाने में बड़े स्वादिष्ट होते हैं और लू के प्रभाव को कम करते हैं। इन्हें लू से बचाव की रामबाण औषधि भी कहा जाता है। ये विटामिन सी और कार्बोहाइड्रेट से भरपूर होते हैं। यह फल मारवाड़ का मेवा भी कहलाता है। पीलू का फल शरीर में पानी की कमी दूर करता है।
भीषण गर्मी में जब सभी पेड़-पौधे सूख जाते हैं तब भी जाळ हरा-भरा रहता है। इसकी घनी शाखाएं और पत्तियां गर्मी में शीतल छांव प्रदान करती है, जो रेगिस्तान में रहने वाले लोगों, जानवरों और पक्षियों को भीषण गर्मी की तपिस से राहत देती है। स्थानीय लोग इन घने पेड़ों को ‘ढूआ’ कहते हैं। इसकी सघनता के प्रभाव से गर्म हवा भी ठंडी हो जाती है। इसी वजह से जाळ को रेगिस्तान का एयर कंडीशनर भी कहा जाता है।
जाळ बहुपयोगी पेड़ है जिसका राजस्थानी जनजीवन में बड़ा महत्व है। इसकी टहनियों से लोग दातुन करते हैं और जड़ का प्रयोग बर्तन आदि साफ करने में किया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.) द्वारा भी इस वृक्ष की दातुन और पत्तों को मुख स्वच्छ करने वाला माना गया है। इसकी छाल और टहनियों में कुछेक ऐसी रोग-प्रतिरोधक क्षमता पाई जाती है जो दंतक्षय को रोकने में सहायक होती है। इसके पत्ते भी माउथ फ्रेशनर की तरह इस्तेमाल किए जाते हैं। जाळ के वृक्ष की हरी पत्तियां मवेशियों के लिए चारे के रूप में इस्तेमाल की जाती हैं और इसकी सूखी पत्तियों को चारे के लिए भंडारित किया जाता है। जाळ की सूखी लकड़ियों को जलाकर उसकी राख का इस्तेमाल चोट और छालों का उपचार करने में किया जाता है। यह औषधीय महत्व का पेड़ है जिससे रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। इसकी छाल व पत्तियों को पीसकर चूर्ण बनाया जाता है जिसे छालों, बवासीर, खांसी, गठियाबाव, बुखार, आंखों के संक्रमण के उपचार में काम में लिया जाता है।
पक्षी जाळ के बीजों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरित करते हैं पर इससे बहुत कम अंकुरण होता है। यह पेड़ मुख्य रूप से जड़ और शाखाओं से अन्य पेड़ में विकसित होता है पर इसकी बढ़वार बेहद धीमी गति से होती है। जाळ की नई अंकुरित कोंपलों को पशु खा जाते हैं जिससे यह अधिक बढ़ नहीं पाता।
पिछले काफी वर्षों से राजस्थान में जाळ की संख्या निरंतर घटती जा रही है। लकड़ी व औषधि के लिए इस पेड़ की अंधाधुध कटाई हो रही है। अधिकाधिक जमीन पर कृषि कार्यों, निवास और औद्योगिकरण के लिए भूमि अधिग्रहण के कारण जाळ के उगाव क्षेत्र को काफी नुकसान पहुंचा है।
पर्यावरण संरक्षण के लिए इस मूल्यवान पेड़ को विलुप्त होने से बचाना बेहद अहम है। इसके औषधीय गुण स्थानीय लोगों और पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। आज की युवा पीढ़ी को भी इस पेड़ के गुणों व महत्व को समझना चाहिए। जाळ के पेड़ पर आसन्न संकट को देखते हुए कृषि विशेषज्ञों, पर्यावरणविदों और जैव-विद्वानों को एक साथ मिलकर इस महत्वपूर्ण वृक्ष को संरक्षण व बढ़ावा देने के लिए मिलकर कार्य करना होगा।