बेर का पेड़ पूरे भारत में मिलता है। यह राजस्थान के भी प्राय: सभी भागों में पाया जाता है। यह कांटेदार पेड़ होता है। इसे हिंदी में बेर, अंग्रेजी में जिजिफुस मोरिसियाना (Zizyphus mauritinna), संस्कृत में बदरी, राजस्थानी और गुजराती में बोरड़ी, मराठी में बोर,इसे हिन्दी में बेर, राजस्थानी और गुजराती में बोरड़ी, बंगाली में बोरुई, तमिळ में इलेंडे और तेलगु में रेगुचेट्टू नामों से जाना जाता है।
बेर का पेड़ काफी शाखाओं,यह हरे पत्तों से भरा-पूरा और कांटेदार वृक्ष होता है जो काफी फैलाव लिए होता है और इसकी ऊंचाई लगभग 45 फीट तक बढ़ती है। बेर के पेड़ पर सितंबर माह में पीले रंग के फूल गुच्छे में लगते हैं जो दिसंबर माह आने तक नारंगी-लाल रंग के छोटे-छोटे फलों का आकार ले लेते हैं। यह बहुपयोगी पेड़ है जिसकी लकड़ियों से लेकर फल और पत्ते तक उपयोग में आते हैं।
पौराणिक और लोकजीवन में बेरी के पेड़ का उल्लेख
रामायण महाकाव्य के असाधारण पात्रों में से एक शबरी से जुड़े हुए प्रसंग में भी बेरों का उल्लेख मिलता है जो इस तथ्य का उदाहरण हैं कि आध्यात्मिक खोज किसी विशेष लिंग, पंथ, वर्ग या समुदाय का विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि सभी मनुष्यों का जन्मसिद्ध अधिकार है। सरलमना शबरी के हृदय में आध्यात्मिक भाव उपजे तो उसने स्वयं के जीवन को ईश्वर-आराधना में समर्पित कर दिया। उसके आध्यात्मिक गुरु मतुंगा ने भविष्यवाणी की थी कि जब भगवान राम कभी उसके आश्रम से गुजरेंगे तब उसे अपने जीवन का उद्देश्य मिल जाएगा।
महीने और वर्ष बीतते गए पर शबरी भगवान राम के आने का धैर्यपूर्वक इंतजार करती रही। जब दुष्ट रावण ने भगवान राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया था और वे सीता की खोज कर रहे थे। इसी खोज के दौरान शबरी को उनके दर्शन हुए। शबरी भगवान राम को मानव रूप में साक्षात देखकर उनके चरणों में गिर पड़ी और अतिथि-सत्कार के रूप में कुछ बेर के फल भेंट किए। तभी उसे शंका हुई कि कहीं ये खट्टे तो नहीं हैं। भावुक शबरी बेरों को चखती गई और मीठे बेर श्रीराम को देती गई। भक्त-वत्सल श्रीराम भी उसके जूठे बेरों को प्रसन्नता से खाते गये। लोकजीवन में प्रचलित यह कथा ईश्वर की भक्त-परायणता का उदाहरण है।
बेर के फल भगवान शिव को अर्पित किए जाते हैं और सभी शिव मंदिरों में इस फल को विशेष महत्व दिया जाता है। सिक्ख धर्म में भी बेर का पेड़ पवित्र माना जाता है। यह अक्सर गुरुद्वारों के आसपास उगाया जाता है क्योंकि यह धारणा है कि गुरु नानक को बेर के पेड़ के नीचे दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ था। संभवतः सबसे पुराना बेर का पेड़ पंजाब के अमृतसर में है जिसे दुख भंजनी बेर कहा जाता है। यह पेड़ सिक्ख के चौथे गुरु श्री रामदास के समय 16वीं शताब्दी में अमृतसर शहर और पवित्र सरोवर की स्थापना के समय मौजूद था। इसकी उम्र अब 400 साल से भी अधिक हो चुकी है पर इसमें अभी भी फल आते हैं। स्वर्ण मंदिर परिसर में आने वाले श्रद्धालु इसके फल नहीं तोड़ते, बल्कि फल गिरने की उम्मीद में पेड़ के नीचे बैठते हैं। यह मान्यता है कि इस बेर के पेड़ के सामने अरदास करने के बाद स्वर्ण मंदिर के पवित्र सरोवर में स्नान करने से समस्त रोग दूर हो जाते हैं।
राजस्थान वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप और उनके परिवार ने ऊथल-पुथल भरे समय में जंगलों में प्रवास करने के दौरान अरावली पहाड़ियों के जंगलों में उगने वाले साधारण बेर खाकर ही अपनी उदरपूर्ति की थी।
इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि बेर के पेड़ और फलों का पौराणिक, धार्मिक एवं लौकिक महत्व रहा है।
बेर के सामान्य और औषधीय उपयोग
बेर के फल आकार और आकृति में काफी विविधता लिए होते हैं। ये शुरुआत में हरे और पकने पर पीले या लाल रंग के हो जाते हैं। ये फल ताजे या किशमिश की तरह सुखाकर खाने में स्वादिष्ट होते हैं। स्वादिष्ट होने के साथ-साथ बेर के फल कई बीमारियों के उपचार के लिए कारगर औषधि हैं। आयुर्वेद में बेर के पौधे के भागों का उपयोग रक्तस्राव विकार, अत्यधिक प्यास और ब्रोंकाइटिस के इलाज के लिए किया जाता है। बेर के फल मधुमेह रोग और हृदय रोगों से मुक्त रखने में सहायक होते हैं।
सूखे फलों को रक्त शुद्ध करने, पाचन में सुधार करने और कब्ज से राहत दिलाने वाला माना जाता है। ये पुरानी थकान, दस्त और एनीमिया आदि रोगों के उपचार में सहायक होते हैं। बेर के फलों में जोड़ों की सूजन को कम करने वाले गुण होते हैं।
पके बेर के फल घावों को जल्दी भरने, सूजन कम करने और त्वचा को चमकदार बनाने में मदद करते हैं। सूखे बेरों के पाउडर को शहद के साथ मिलाकर चेहरे पर मास्क के रूप में लगाने से त्वचा में चमक आती है और त्वचा का संक्रमण दूर होता है। सूखे बेर हड्डियों को मजबूत बनाने में मददगार होते हैं। इसका पाउडर बवासीर रोग में होने वाली जलन और सूजन को कम करने में उपयोगी होता है। आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथ चरक संहिता में बवासीर के उपचार के लिए बेर के काढ़े से स्नान करने की सलाह दी गई है।
बेर के फल के पाउडर और पत्तियों के पेस्ट से बालों का झड़ना रोकने में मदद मिलती है। इसे सिर की त्वचा पर कुछ दिन तक लगाते रहने से नए बाल उगने लगते हैं और रूखापन दूर होता है।
बेर की गुठलियों से निकलने वाले बीज शामक गुणों से भरपूर माने जाते हैं जो अनिद्रा रोग का उपचार करने में काफी कारगर होते हैं। इनके प्रयोग से चिंता से राहत मिलती है और हिस्टीरिया का इलाज भी किया जाता है। बेर के फलों और बीजों का उपयोग उल्टी, पेट फूलने, मतली, कुष्ठ रोग और अल्सर के इलाज में भी किया जाता है।
बेर के पत्तों से बने पेस्ट से जलन और बुखार में राहत मिलती है। इस पेस्ट का उपयोग फोड़े-फुंसियों के इलाज में भी किया जाता है। बेर की छाल का प्रयोग दस्त, पेचिश, मसूड़ों की सूजन आदि के इलाज में किया जाता है। बेर के पेड़ की जड़ों का उपयोग बुखार, घाव, अल्सर आदि के उपचार में भी किया जाता है।
अन्य उपयोग
बेर के पेड़ की लकड़ी लालिमा-युक्त होती है जो काफी मजबूत और टिकाऊ होती है। इसका प्रयोग कृषि उपकरण, कुल्हाड़ी के हत्थे, खिलौने आदि बनाने में किया जाता है। बेर का पेड़ की लकड़ी ईंधन और बढ़िया गुणवत्ता वाले कोयले का अच्छा स्रोत है। इसके पत्तों के पौष्टिक चारे को पशु बड़े चाव से खाते हैं। बेर की छाल को पानी में पीसकर भूरा और लाल रंग बनाया जाता है जिससे कपड़े, जूतियां आदि रंगी जाती है।
बेर की कृषि वानिकी के लाभ
बेर के पेड़ कृषि वानिकी प्रणालियों के लिए उपयुक्त होते हैं क्योंकि इनकी गहरी जड़ प्रणाली मिट्टी की संरचना और उर्वरता में सुधार लाने में सहायक होती है। बेर के पेड़ फसलों को तेज हवा से बचाते हैं और बाड़ के रूप में कार्य करके मिट्टी के कटाव को रोकते हैं।
बेर का वृक्ष राजस्थान की शुष्क भौगोलिक परिस्थितियों में काफी बहुमुखी और मूल्यवान संसाधन है जो खाद्य सुरक्षा, आजीविका और जैव विविधता संरक्षण में योगदान देता है। बेर पौष्टिक फलों से लेकर औषधीय गुणों और सांस्कृतिक महत्व आदि दृष्टियों से बहुपयोगी पेड़ है।