संभरथल रळियावणौ, तूं ही मुकाम ताळवा।

भगतां सरसौ भाव करि, देवजी दया करि आव।

गोविंदो गूगळ खेवंतो, रमंतो या थळिया।

साधा ने समझावतो, हूं तांह दिनां बलिहा।

तीरथ मोटो ताळवो, जे करि जाणै कोय।

जिण पहराजा उधर्यो, साचो सतगुर सोय॥

स्रोत
  • पोथी : जांभोजी विष्णोई संप्रदाय और साहित्य ,
  • सिरजक : आलम जी ,
  • संपादक : हीरालाल माहेश्वरी ,
  • प्रकाशक : सत साहित्य प्रकाशन, कलकत्ता ,
  • संस्करण : द्वितीय
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