एकौ लाखाँ आंगमैं सीह कही जै सोय।

सूराँ जेथी रोड़ियै कळहळ तेथी होय॥

कळळ हूँकळ अवसि खेति सूरा करै।

धीरपै सुहड़ रिण चलण धीरा धरै॥

आगि व्रजागि जसवंत अकळावणौ।

खाग वळि एकलौ लाख दळ खावणौ॥

सिंह उसी को कहना चाहिए जो अकेला लाखों की बराबरी करता है, वह जिधर शूरों को घेर लेता है उधर कोलाहल हो जाता है। अवश्य ही रणभूमि पर योद्धा शोरगुल करने लगते हैं। युद्ध में वीरों को धैर्य देता है और धीमी चाल से चलता है। निद्र्वन्द्वजसवंत वज्र की आग है। वह अपनी तलवार के बल से अकेला एक लाख सेना को खानेवाला है।

स्रोत
  • पोथी : हालाँ झालाँ रा कुंडलिया ,
  • सिरजक : ईसरदास ,
  • संपादक : मोतीलाल मेनारिया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर ,
  • संस्करण : द्वितीय
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