सबळा खळ सूं सांधियां, निंबळ जाय खळ नास।

मूंसो मेळ मंजार कर, बचियौ विपत विलास॥

बैरी कंटक नाग विष, बीछू कैंवच बाघ।

यांसूं दूर रहंतड़ां, दूर रहै दुख दाघ॥

वैरी कड़छै बांकला, करै अहोणो काज।

राम तार गिरवर रची, पाणी ऊपर पाज॥

ज्यांरै थोड़ा सैंण जग, वैरी घणा वसंत।

तिसटै दिन थोडा तिके, आखै संत असंत॥

वातां वरै बिसावणा, सैणां तोड़ै नेह।

हासै विष पीणा हरख, आछा काम एह॥

अै बक मूनी ऊजळा, मीठा बोला मोर।

पूछौ सफरी पनग नूं, क्रत ऊघड़े कठोर॥

प्रबल शत्रु से संधि (मित्रता) करने से निर्बल शत्रु का नाश हो जाता है। जैसे चूहा कभी कभी बिल्ली से मैत्री करके विपत्ति के विलास से कभी बचा है क्या? कदापि नहीं। इस दोहें में उदारहण अलंकार है॥1

शत्रु, सांप, दुष्ट, विष, बिच्छू, कैंवच और बाघ इनसे दूर रहने वाले दुःख से भी सदा दूर ही रहते है अर्थात् सदा सुखी रहते हैं। इस दोहे में समुच्चय अलंकार है॥2

कवि बांकीदास के अनुसार प्रतिशोध के लिए कृत संकल्प पुरुष-सिंह अपनी संकल्प-शक्ति के सहारे असंभव को भी संभव करके दिखा देता है। दशरथनंदन श्रीराम ने समुद्र के जल पर पर्वतों को तैरा कर सेतु बना डाला। इस दोहे में उदहारण अलंकार है॥3

साधु तथा असाधु सभी का मानना है कि जिनके शुभचिंतक तो कम लोग है तथा शत्रुओं की संख्या का कोई पार ही नही है वे संसार में थोड़े दिनों तक ही विद्यमान रहते हैं। इस दोहे में हेतु अलंकार है॥4

बातों ही बातों में शत्रुता उत्पन्न करना तथा शुभचिंतकों से संबंध विच्छेद करना तथा हँसी-हँसी में प्रसन्न मन से विषपान करना ये काम शुभ नही है। इस दोहे में समुच्चय अलंकार है॥5

ध्यानमग्र दिखाई देने वाले श्वेतवर्ण बगुले और मधुर वचन बोलने मोर इन दोनों के कर्मों के विषय में मछली तथा सर्प से पूछो तो वस्तु-स्थिति ज्ञात होगी। बगुला मछली को खा जाता है और मोर सर्प को निगल जाता है। इस दोहे में व्याघात अलंकार है॥6

स्रोत
  • पोथी : बांकीदास- ग्रंथावली ,
  • सिरजक : बांकीदास ,
  • संपादक : चंद्रमौलि सिंह ,
  • प्रकाशक : इंडियन सोसायटी फॉर एजुकेशनल इनोवेशन, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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