खग इण साकरखोर रे, संग साकर गूंण।

सब दिन पूरे सांइयां, चांच दई सो चूंण॥

आळस तज निज गरज अब, भज त्रभुयण भूपाळ।

पिए निरंतर आय पय, बांका काळ बिडाल॥

रोम रोम आमय रहे, पग पग संकट पूर।

दुनियां सूं नजदीक दुख, दुनिया सूं सुख दूर॥

रूड़े तीरथराज रे, नित जळ कीजे न्हान।

तो पिण हुए पाक तन, मूळ पुरीष मकान॥

हणें पसू तिण खिण हुए, हिए दया री हांण।

थाळी मांह मसांण घट, गिलही छोड़ गिलान॥

गात संवारण में गमे, ऊमर काय अजांण।

आखर प्राण प्रमुक ओ,खाख हुसी मळ खांण॥

चरणां आठां चालियो, जंगळरी रूख जाय।

पुरष हूत दूंणूं पसू, अंतक कीधो आय॥

नह बहमन नोसेरवां, अफरास्याब ऐथ।

फरेदून नमरूद फिर,कयूमर्स गो कैथ॥

सहरयार मीनोचहर, कैकाऊस जुहाक।

सुळेमान जमसेदनूं, फेस गयो जम फाक॥

ताजदार बैठो तखत, रज में लोटे रंक।

गिणे दुनां नूं हेक गत, निरदय काळ निसंक॥

शक्कर खाने वाला(मधुर फल भक्षी) पक्षी कभी भी अपने साथ शक्कर की बोरी नहीं रखता है। इन सृष्टि के चराचर(सभी) प्राणियों को उत्पन्न करने वाला परम प्रभु ही सभी प्राणियों के भरण-पोषण की रात-दिन समुचित व्यवस्था सुनिश्चित करता है॥1

कवि कहता है कि हे मन! तू आलस्य छोड़कर आत्म-कल्याण के उद्देश्य से अविलम्ब परम प्रभु को भजना प्रारम्भ कर दे क्योंकि यह काल रूपी बिलाव तेरे आयुष्य रूपी दूध को अविराम गति से उदरस्थ कर रहा है। पता नहीं कब इस क्षणभंगुर काया का अंत हो जाय?॥2

आयुर्वेदचार्यों के चिंतन के सार के अनुसार, ‘शरीरेव व्याधि मंदिरम्’ अर्थात् यह शरीर रोगों का घर है। इसके रोम-रोम में रोगाणु समाहित हैं तथा कदम-कदम पर घोर संकट का सामना है। इस संसार से सुख तो अत्यंत दूर है। संसार में तो दुःखों का सामीप्य दिखाई देता है॥3

व्यक्ति चाहे तीर्थराज प्रयाग के तट पर बस करके उसके पवित्र जल से नित्य-प्रति कितना ही अवगाहन क्यों नहीं कर ले, इसके उपरांत भी मल(विष्ठा) उत्पन्न करने वाली काया तो प्रभु के नाम-जप बिना कभी भी पवित्र होने वाली नहीं हैं॥4

जिस पल से मनुष्य पशु हत्या में प्रवृत होता है, उसी पल से उसके ह्रदय का दयाभाव नष्ट होना प्रारंभ हो जाता है। मारे गये जीव के माँस को थाली में लेकर जिस समय खाया जाता है उस घृणित कर्म प्रारंम्भ होने के साथ ही माँसाहारी व्यक्ति का घर भी मरघट में परिवर्तित हो जाता है॥5

शरीर की नश्वरता और क्षण-भंगुरता की ओर संकेत हुए कविवर बांकीदास मनुष्यों को सावधान करते हुए कहते है कि हे अज्ञानी प्राणी! तू इस क्षणभंगुर एवं सर्वथा नश्वर शरीर को सजाने सँवारने में ही अपने आयुष्य को व्यर्थ क्यों खो रहा है? प्राण निकलने के साथ ही यह मल-मूत्र की खान तो आग में जल कर पल भर में राख में परिवर्तित हो जायेगी॥6

मृत्यु मनुष्य को दुगुना पशु बना डालती है। कारण कि मृत्यु के उपरांत अंतिम यात्रा के समय वह आठ पाँवों के आश्रय से ही श्मशानभूमि में पहुँच पाता है अर्थात् दो पाँवों वाला मनुष्य मरघट पर तो दो-दो पाँव वाले चार परिजनों के कंधो पर सवार होकर ही पहुँच पाता है॥7

आज बहमन, नौशेरवाँ और अफर्सयाब इस संसार में विद्यमान नहीं है। इसी प्रकार फरीदूँ, नमरूद तथा कयूमर्स का भी कोई पता नहीं है, जाने ये सभी बादशाहगण कहाँ गये?॥8

इसी प्रकार शहरयार, मनोचेहर, कैकाऊस, जुहाक, सुलेमान तथा जमशेद जैसे फारस के बादशाहों का भी आज कोई नाम लेने वाला भी नहीं है। पता नहीं वे कहाँ है? सभी को काल ने अपना ग्रास बना लिया है॥9

बादशाह सिहांसन पर शोभित होता है तथा गरीब धूल में ही सोता है। निर्दयी काल दोनों को एक ही दृष्टि से देखता है तथा दोनों के साथ एक जैसा व्यवहार करता है॥10

स्रोत
  • पोथी : बांकीदास- ग्रंथावली ,
  • सिरजक : बांकीदास ,
  • संपादक : चंद्रमौलि सिंह ,
  • प्रकाशक : इंडियन सोसायटी फॉर एजुकेशनल इनोवेशन, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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