वानर री निरलज्जता, उपल कठणता लीध।

वायस तणों कुकंठ ले, कुकवि विधाता कीध॥

खिलवत हास खुसामदी, सुरका दुरकी सांग।

किसव लिया कुकवियां, माहव हूता मांग॥

पारेवी ज्यूं पुसतकां, कुकव बाज बस थाय।

पांखां ज्यूंही पानड़ा, जत्र तत्र व्है जाय॥

किलनूं कलनूं कल कहै, रिष रूप रो रष रूप।

बिगड़े कुकवी रसणबस, सबदां तणो सरूप॥

रंक कुकवि दोनूं रहै, कोस हूंत सो कोस।

आयां सुपन अलंकृति, होण तणी नह होस॥

डिंगलिया मिलियां करै, पिंगल तणो प्रकास।

संसक्रती व्है कपट सज, पिंगल पढियां पास॥

बातां बिसतारे बणै, सठ आगे सरवज्ञ।

मून ग्रहे छांडे मछर, तीखो मिलियां तज्ञ॥

कुकव हूंत आछो कुतर, ऊगे चंदण पास।

लहि चंदण सोरभ लहै, चंदणता गुणरास॥

सुकव वदन तज सारदा, कुकव बदन नह जाय।

जावे नह तज अंब ज्यूं, कोयल कैर कुछांय॥

कुकवि हरषे कवित सूं, भल हरषे कवभूप।

उदध उमंगै ससि उदै, किसूं उमंगें कूप॥

कोई कुकवि जीभ सूं, बांछे रसमय बांण।

कंचण वांछे काढणो, सो लोहा री खांण॥

परमात्मा ने बंदर जैसी बेशर्मी, पाषाण जैसी कठोरता के साथ ही कौए जैसी कर्कश ध्वनि वाले कंठ के साथ ही कुकवि की रचना की है॥1

एकान्तप्रियता, व्यंग्य करना, चाटुकारिता, परनिंदा में प्रवीणता में जैसे दोष कुकवि ने विधाता से हठपूर्वक माँग कर लिए है॥2

जिस प्रकार बाज के वश में हुए कबूतर के पंख इधर-उधर (चारों ओर) बिखर जाते है, उसी प्रकार निर्दयी एवं निर्लज्ज कवि रूपी बाज के अधिकार में आते ही पुस्तक रूपी कबूतर के पृष्ठ (पन्ने) रूपी पंखों को इधर-उधर बिखरते देर नहीं लगती।3

मंदमति कवि निश्चय तथा विश्राम के लिए प्रयुक्त शब्द ‘किल’ तथा ‘कळ’ के लिए ‘कल’-विगत तथा उपद्रव सूचक शब्द को तथा ‘रिष’ (ऋषि-मुनि) शब्द को रख के रूप में प्रयुक्त करके शब्दों के सही स्वरूप को ही विकृत कर देता है॥4

निर्धन व्यक्ति तथा निर्बुद्धि कवि ये दोनों ‘कोश’ खजाने तथा शब्दकोश से सर्वदा सौ कोस दूर रहते है। दोनों को अगर स्वप्न में भी अलंकार दिख जाए तो वे दोनों किसी अनहोनी के घटित होने की आशंका से ग्रसित हो जाते है।5

दुर्वादी कवि डिंगल छंद के प्रेमियों के सम्मुख पिंगल छन्दशास्त्र की प्रशंसा करता है। उस मंदमति के मतानुसार धूर्तता के सहारे पिंगल में विशेषज्ञता प्राप्त कर लेने से ही संस्कृत भाषा के पंडितों से समता कर पाना संभव होता है॥6

महामूर्ख कवि अज्ञानी (मूर्ख) लोगों के आगे तो स्वयं को सर्वज्ञ सिद्ध करने का असफल प्रयास करता है परन्तु ज्यों ही अपने से अधिक ज्ञान वाले के साथ संवाद का संयोग बैठता है, तब तो अहंकार त्याग कर अविलम्ब मौनव्रत धारण कर लेता है॥7

संगति के प्रभाव को उजागर करते हुए कवि बांकीदास कहते है कि कुकवि से तो वह कुतरु (बबूल आदि काँटेदार वृक्ष) बहुत उपयोगी सिद्ध होता है, जो चंदन के समीप उगता है तथा उसकी सुगंध ग्रहण करके अपने को भी सुगन्धित कर लेता है॥8

वाणी की अधिष्ठात्री सरस्वती सर्वदा सदाचारी कवि के ही ह्रदय में बसी रहती है। वह कभी भी दुराचारी के घट में निवास नहीं करेगी- जैसे कोयल कभी भी आम के वृक्ष का आश्रय तज कर केर के झाड़ का आश्रय ग्रहण नहीं करती है॥9

संकीर्ण भाव वाला दुराचारी कवि कभी भी दुसरे भले कवि की रचना सुनकर हर्षित नहीं होता है जैसे- पूर्णिमा के चाँद को देखकर कूप के जल में कभी ज्वार नहीं सकता है। पूर्ण इन्दु को निहार कर केवल समुद्र ही हर्षित होता है, जिसके कारण उसका जल पूर्ण चन्द्र को स्पर्श करने हेतु उतावला होता है॥10

यदि कोई भला आदमी दुराचारी कवि के मुख से सरस शब्दावली सुनने की आशा करता है तो उसकी वह आशा वैसी ही दुराशा होगी, जैसे कोई व्यक्ति लोहे की खान से सोना प्राप्त होने की आशा करता है॥11

स्रोत
  • पोथी : बांकीदास- ग्रंथावली ,
  • सिरजक : बांकीदास ,
  • संपादक : चंद्रमौलि सिंह ,
  • प्रकाशक : इंडियन सोसायटी फॉर एजुकेशनल इनोवेशन, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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