राघव रयणासर रसा, सेस महेश्वर वैण।

सुणे बधायौ गिरि-सुता, सो व्हौ मो सुख दैण॥

तूं क्यूं गणपत नाम लै, जोतै धवळो ज्यार।

गणपत हंदा बाप रौ, धवळ उठावै भार॥

धवळ अटकै धुर वहै, कासूं पांणी कीच।

इण री जननी तारही, वैतरणी रै बीच॥

कांकर करहै गार गज, थळ हैंवर थाकंत।

त्रहूं ठौड़ हेकण तरह, चंगौ धवळ चलंत॥

धवळ सरीखौ धवळ है, की कीजै कैवार।

जेतौ भार भळावियै, तेतौ खंचणहार॥

जग मै धवळ कहावही, सो माठौ नह होय।

धवळ नाम सुण धुरवहौ, समझ लियै सह कोय॥

बड़कै औधण बंधिया, पैसे पई पताळ।

सोच करै नह सागड़ी, धवळ तणी दिस भाळ॥

खड़णौ जाझै भार खित, बापूकारै बोल।

नही उचित करणौ नरां, धवळा हंदो मोल॥

जो घणदीहौ सागड़ी, व्है विरदावणहार।

सींगाळौ बळ सौ गुणौ, जांणावै जिण वार॥

आडौ अंवळौ क्यूं फिरै, धवळौ बापूकार।

औहिज पार उतारही, थळ सामै भार॥

विष्णु का निवास समुद्र में है, समुद्र का आधार पृथ्वी है, पृथ्वी को शेषनाग ने धारण कर रखा है और शेष का आधार बैल है, इसलिए विष्णु, समुद्र, पृथ्वी एवं शेषनाग ये सभी बैल की स्तुति करते है। महादेव का वाहन बैल विख्यात है इसलिए महादेव भी बैल की स्तुति करते है। उस स्तुति को सुनकर उमा जिसकी अगवानी करती है, वह नंदिकेश्वर मुझे सुख प्रदान करे। इस दोहे में उदात्त अलंकार है॥1

हे कृषक! तू हल अथवा गाड़ी में श्वेतवर्ण बैल को जोतते समय गणेश का स्मरण क्यों करता है? वह धवल (श्वेतवर्ण का बैल) तो स्वयं गणेश के पिता महादेव का भी भार वहन करता है। इस दोहे में अधिक अलंकार है॥2

यह बैल रुकने का तो नाम ही नहीं लेता यह तो सदा आगे की ओर गतिशील रहता है चाहे पानी हो या कीच। इसकी माता गौ, प्राणियों को वैतरणी नदी पार कराने वाली है। इस दोहे में हेतु अलंकार है॥3

कंकरीली भूमि में ऊँट, दलदल (कीचड़) में हाथी तथा रेतीली राह में घोड़ा जवाब दे देता है परन्तु बैल तो तीनों प्रकार की राहों (कंकरीली, कीचड़वालीतथा रेतीली) में समान रूप से गतिशील रहता है। इस दोहे में अप्रस्तुतप्रशंसा और समुच्चय अलंकार है॥4

बैल के समान बोझ उठाने वाला तो एक मात्र बैल ही है, उसकी किन शब्दों में स्तुति की जाए? वह तो गाड़ी में जितना भी बोझ लादा जाता है, उसे खींचता जाता है। इस दोहे में उपमाभास अलंकार है और प्राचीन मत का अनन्वय अलंकार है॥5

धवल नाम का अधिकारी तो वही बैल हो सकता है, जो निरुत्साही नहीं हो। धवल नाम सुनते ही सुनने वाले के ह्रदय में बोझ उठाने में अग्रणी गौ-वत्स (बैल) का स्वरूप साकार हो उठता है। इस दोहे में ज्ञापक हेतु अलंकार है॥6

बैलगाड़ी में लादे गये असाधारण भार (बोझ) के कारण गाड़ी के थाटे के नीचे भार झेलने के लिए लगाये गये मोटे लंबे लकड़े (औधण) टूटते हुए लगते है और गाड़ी के पहिये भी जमीन में धँसते हुए प्रतीत होते है। ऐसी स्थिति में भी गाड़ी हाँकने वाला व्यक्ति बैलों की क्षमता में विश्वास के कारण सर्वथा निश्चिंत नजर आता है। इस दोहे में विचित्र अलंकार है॥7

धवल को तो हमेशा उतरदायित्वबोध संपन्न मानकर ‘म्हारा बाप’ इस प्रकार के पितृ-तुल्य सम्मान भाव के साथ हाँकने से वह धवल हाँकने वाले की आशा के अनुरूप फल देने वाला सिद्ध होता है। वह जितना चाहे उतना क्षेत्र (खेत) जोत सकता है। श्वेतवर्ण के बैल को अनादर सूचक शब्द नहीं कहने चाहिए, यह तो अमूल्य है। इस दोहे में विधि अलंकार है॥8

यदि धवल को वयोवृद्ध एवं उत्साहवर्द्धक स्तुति करने वाला समझदार सागड़ी (हाँकने वाला) मिल जाय तो वह श्रृंगधारी प्राणी धवल अपनी सामर्थ्य को सौ गुना प्रदर्शित कर सकता है। इस दोहे में संभव अलंकार है॥9

हे गाड़ीवाहक! तू बालू के रेते से गाड़े को पार लगाने के लिये लोगों की सहायता प्राप्त करने हेतु इधर-उधर क्यों भटक रहा है। तू तो ‘म्हारा बाप’ (हे मेरे पिता तुल्य सम्माननीय) जैसे शब्दों से संबोधित करके अपने बैलों का हो उत्साहवर्द्धन कर। ये धवल ही तेरे गाड़े को इस रेत की चढ़ाई से पार लगाएंगे। इस दोहे में अप्रस्तुतप्रशंसा और आपेक्ष अलंकार है॥10

स्रोत
  • पोथी : बांकीदास- ग्रंथावली ,
  • सिरजक : बांकीदास ,
  • संपादक : चंद्रमौलि सिंह ,
  • प्रकाशक : इंडियन सोसायटी फॉर एजुकेशनल इनोवेशन, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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