आग जागै आंखियां, तिण सिर दिधां तंत।

पल पल मुख पुलकावणो, कायर ही उचकंत॥

दिन नूं रजनी दाखियां, दाखै तारावंत।

दे ओहड़ो वां नरां, कनैं राखो कंत॥

भेष लियां सूं भगत नहं, व्है नह गहणां हूर।

पोथी सूं पंडित नहीं, ससतर सूं नह सूर॥

ज्यूं कुकवि की जीभ में, ब्रह्मसुता नह बास।

त्यूं कायर री तेग में, नंह कालिका निवास॥

आंसूं नाखै आंख सूं कर हूंता किरमाळ।

भागल नंह नाखै भिड़ज, असहां सिर आताळ॥

कहणो गोळां हूंत की, डोळां हूंत डरंत।

खल दल केरी खेह सूं, कायर खेह करंत॥

ज्यूं कामण पोसाक कर, पाछा नूं पेखंत।

भागल पाछे भाळ ही, भाजंतो इण भंत॥

लाजाळू बागां मही, कायर कटकां मांहि।

परसे नर कर रो पवन, सकुचै संसो नांहि॥

नर कायर आंणे नहीं, लूंण लिहाज लगार।

धोळै दिन छोड़े धणी, अणी मिलै उण वार॥

समर ढिळोकर सांम नूं, लस आवै लबड़ाक।

मूंछ थकां मूंडत जिके, नाक थकां बिण नाक॥

कायर मनुष्य के सिर पर मार पड़ने की स्थिति में भी नेत्रों में कभी भी क्रोधानल जागृत नहीं होता है। वह निर्ल्लज नर आवेश में आकर एक पल में आक्रामक होता है तो दुसरे ही पल निस्तेज होकर सर्वथा निष्क्रिय हो जाता है।1

शूरवीर की सहधर्मिणी उसे यही सत्परामर्श देती है कि हे स्वामी! जो सेवक स्वामी द्वारा दिन को रात कहे जाने की स्थिति में रात के साथ तारावंत (तारों सहित) विशेषण का भी प्रयोग करने में नहीं चुकता है, ऐसे ठाकुरसुहाती कहने वालों को कभी भी अपना परामर्शदाता मत बनाना। जो सेवक असत्य बात के साथ असहमति नहीं दर्शाता हो, कटु उत्तर देने से कतराता हो, ऐसे व्यक्ति को कभी भी मुँह मत लगाना।2

हे स्वामी! जिस प्रकार केवल भगवा धारण कर लेने से ही कोई व्यक्ति भक्त नहीं बन जाता है और ही गहना धारण कर लेने मात्र से कोई स्त्री सुंदर बन सकती है, उसी प्रकार केवल पुस्तक पढ़ लेने से कोई पंडित नहीं बन सकता और ही कभी कोई कायर पुरुष केवल शस्त्र धारण कर लेने से शूरवीर सिद्ध हो सकता है।3

जिस प्रकार कुकवि की जिव्हा पर सरस्वती का निवास संभव नहीं है, उसी प्रकार कायर की तलवार में कालिका की शक्ति का निवास नितांत असंभव ही रहता है।4

कायर पुरुष नेत्रों से आँसू गिराता है तथा हाथ से तलवार। वह निस्तेज कभी भी शत्रुओं के शीश पर तलवार तो पटकता ही नहीं है।5

कापुरुष रणभूमि में तोपों के गोलों से क्या, वह तो शत्रुओं की आँखों से भी भयभीत रहता है। निर्वीर्य कायर तो शत्रुदल के प्रयाण से उड़ने वाली खेह(धूल) से ही अपनी काया को खेहमय(धूलमय) कर लेता है, कायर स्वयं भागता हुआ धूल उड़ाता है।6

सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित युवती चलते समय पोशाक की छवि निहारने के लिए पीछे की तरफ देखती है। वैसे ही रण-क्षेत्र से विमुख होकर भागता हुआ कायर भी मुड़-मुड़ कर पीछे की ओर देखता है कि कहीं शत्रुदल का कोई सैनिक उसे पकड़ने के लिए पीछे तो नहीं रहा है।7

उपवन(बाग) में छुईमुई(लाजवंती) तथा सेना में कायर, ये दोनों ही अपना परिचय दिये जाने की स्थिति में परिचय देने वाले व्यक्ति के हाथ का स्पर्श और संकेत होते ही तत्काल मुरझा जाते हैं।8

कायर नर तो भूलकर भी अपने आश्रयदाता के नमक का ऋण उतारने की चिंता नहीं करता है। वह तो शस्त्र प्रहार शुरू होते ही अपने स्वामी को सर्वथा असहाय स्थिति में छोड़कर भाग जाना ही अपना परम धर्म समझता है।9

जो निर्वीर्य एवं निर्ल्लज नर रणक्षेत्र में अपने स्वामी को एकाकी एवं असहाय स्थिति में छोड़कर अपने प्राण बचाकर युद्ध भूमि से पलायन कर जाते हैं, वे नराधम तो मूँछ होते हुए भी बिना मूँछवाले तथा नाक होते हुए भी नाकविहीन ही माने जाते हैं।10

स्रोत
  • पोथी : बांकीदास- ग्रंथावली ,
  • सिरजक : बांकीदास ,
  • संपादक : चंद्रमौलि सिंह ,
  • प्रकाशक : इंडियन सोसायटी फॉर एजुकेशनल इनोवेशन, जयपुर ,
  • संस्करण : प्रथम
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