जद जागूं जद

रोजा दीखै छै

सहरी करबा की बगत आतां आतां

आंख लाग ज्या छै।

लोगबाग जगावै कोई नै,

खुद सहरी कर लै छै

म्हारै पांती तौ

फाका फाका छै

म्हूं भारत कौ

समझदार मनख छूं।

स्रोत
  • पोथी : अंवेर ,
  • सिरजक : प्रेमजी प्रेम ,
  • संपादक : पारस अरोड़ा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर ,
  • संस्करण : पहला संस्करण