म्हैं हूँ कसा बाग री मूळी,

लूंठौ दाता चवदै लोक।

हूँ हरि थारै चाकर हळकौ,

थूं हरि म्हारै मोटौ थोक॥

अहि नर सुर हाजर हुय ऊभा,

म्हैं मानव जन कितियक बात।

अमां विसन घर केहौ आदर,

विसन अमां घर मोटी बात॥

‘ओपौ’ कहै मैल्हूं अळगौ,

सहजै पारस पायौ सोय।

करता रै तौ हूँ कौड़ी रौ,

करता समौ म्हारौ कोय॥

इस अनन्त सृष्टि में मेरे जैसे तुच्छ नाचीज़ की हस्ती ही क्या है, जो किसी प्रकार का अभिमान करूँ। चौदह भुवनों के स्वामी और चराचर का भरण-पोषण करने वाले वे भगवान ही इस संसार में एकमात्र समर्थ हैं। हे प्रभो, मैं तो तुम्हारा एक अदना-सा दास मात्र हूँ, परन्तु मेरे लिए आप से बढ़कर और कोई मान प्रतिष्ठा देने वाला नहीं। आप ही मेरे सर्वस्व हैं।1

चराचर के स्वामी भगवान श्रीहरि के सम्मुख समस्त देव, नाग और मानव आज्ञा पालन हेतु सदा ही हाथ बाँधे खड़े हैं। उन की तुलना में मेरे जैसे साधारण मनुष्य की तो औकात ही क्या है? जगतपति भगवान विष्णु के सम्मुख इस तुच्छ जीव की क्या गिनती है? परन्तु मेरे लिए तो वे ही एक मात्र वरेण्य देव हैं।2

ओपा आढ़ा कहता है-मुझे सहज ही टोह करते-करते राम नाम रूपी ऐसा पारस मिल गया है कि जिसे क्षणार्द्ध के लिए भी अपने से अलग करना नहीं चाहता। मैं भगवान के लिए किसी भी अर्थ का नहीं हूँ, परन्तु मेरे लिए उन के सिवा इस संसार में अन्य कोई आश्रय नहीं है। समस्त सृष्टि में वे ही एक मात्र सर्वशक्तिमान हैं।3

स्रोत
  • पोथी : ओपा आढ़ा काव्य सञ्चयन ,
  • सिरजक : ओपा आढ़ा ,
  • संपादक : फतह सिंह मानव ,
  • प्रकाशक : सहित्य अकादेमी- पैली खेप
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